Sunday 2 February 2014

अस्तित्व का बोध


अस्तित्व का बोध 

जीवन की अनजान राह पर , बढ़ रहे हैं कदम। 
मंजिलें हैं धुंधली-धुंधली , पर होंसले हैं  बुलंद।  
चल रही हूँ एक नयी राह पर , 
खोज रही हूँ अपने अस्तित्व को। 
रह रही हूँ भीड़ में पर तलाश रही हूँ खुद को ,


कुछ प्रश्न हैं कुछ द्वंद् हैं मन में ,
मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ?
मैं क्यों हूँ ? खुद से पूछती हूँ। 
और ये पाती हूँ कि 
मुझ में ही मेरा अस्तित्व हैं 

मैं ही  मुझे गिरने पर सहारा देती हूँ। 
मैं ही मुझे बिखरने से बचाती  हूँ। 
मैं ही अपने दर्द की गहराइयों को जानती हूँ। 
मैं ही अपने सपनों को पहचानती हूँ। 
मैं ही इस भीड़ से खुद को अलग करती हूँ। 
मैं ही अपने भीतर के उन्मुक्त पंछी को उड़ान देती हूँ। 



मैं ही करती हूँ संघर्ष अपने अस्तित्व के लिए। 
मैं ही करती हूँ प्रयास अपने उद्देश्य के लिए। 
मैं ही लड़ती हूँ अपने अंतर्मन की सीमा से। 
मैं समझाती हूँ इस नासमझ मन को ,
जो औरों  मैं खुद को ढूढ़ता हैं। 
और अपनी ही परछाई से मुख़ मोड़ता हैं। 

वो मैं ही हूँ जो मुझे बनाती हूँ ,
अपने सपनों को जीती हूँ ,
मैं ही अपने जीवनरूपी धागे की मोती हूँ। 
और मैं ही उसे पिरोती हूँ। 


मैं ही हूँ जो रोती हूँ, हँसती हूँ , 
गाती हूँ. गुनगुनाती हूँ , मुस्कुराती हूँ ,
मैं ही परिचित हूँ अपने आप से ,
मैं स्वयं ही हूँ वो जिसे मैं बाहर तलाशती हूँ। 

                                                      - शालिनी  पाण्डेय 

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