यथार्थ मानस को
डराता है और
कल्पना पंख उगाती है
डर से पार पाने के लिए।
~ शालिनी पाण्डेय
लेखन कर्म के लिए
शब्द बहुत जरूरी हैं
लेकिन जो सबसे जरूरी है
वो है संवेदना
जो लेखक को
शब्द चुनने और बुनने की
कला से परिचित कराती है।
- शालिनी पाण्डेय
जब तेरे और मेरे
बीच में मोहब्बत है तो
फ़िर ये शर्म और पर्दा
हमारे बीच कैसे?
- शालिनी पाण्डेय
ऐ लड़की,
तुम अपने लिए
कोई ख़्वाब
क्यूं नहीं देखती ,
क्या सारी सांसें तुम
हिम्मत जुटाने में ही
जला दोगी?
- शालिनी पाण्डेय
कई बार
जब मैं खुद को
अलग पाती हूँ
अन्य लड़कियों से
भौतिक नहीं
वैचारिक, बौद्धिक
और कल्पना के स्तर पर
तो मुझे ये
अहसास कराया जाता है कि
अलग राह चुनना
यूँ तो सही है,
...
पर............
सुरक्षा ???????
वो कैसे पाओगी इस राह पर?
क्योंकि आखिर
हो तो तुम लड़की ही।
- शालिनी पाण्डेय
मैं नहीं चाहती,
बहुत बड़ा संसार अपने लिए,
मैं चाहती हूं,
बहुत सारी संवेदनाएं अपने लिए,
और हो सके तो
एक हमराही,
इन्हें सांझा करने के लिए।
- शालिनी पाण्डेय
यहाँ हमारे आस पास
बहुत कम लोग है
जो कविता की
भाषा समझते है
और जो कविता के
मर्म को जान पाते है,
क्योंकि ज़्यादातर तो
स्थूल आवश्यकता
की पूर्ति में
अपनी जान उलझाकर
जो जानने योग्य है
उससे वंचित हो जाते है।
- शालिनी पाण्डेय
लिखना एक प्रयास है
अंतर्मन की बेचैनियों को
शक़्ल देकर दूसरों से रूबरू
कराने का
लिखना एक लत है
सिगरेट जैसे
जिसके धुएं से तुम मदहोश हो
ना चाहते हुए भी
लिखना एक रिश्ता है
मोहब्बत की तरह
जो बनता चला जाता है
बिना किसी इजाज़त के
लिखना मानो एक घटना है
जिसमें बीत रहा होता है
लेख़क का वर्तमान
स्याही में डूबते-तैरते हुए।
- शालिनी पाण्डेय
कुछ अल्फ़ाज़
पुल जैसे होते हैं
जो दो मूक संवेदनाओं को
जोड़ने का काम करते हैं ।।
- शालिनी पाण्डेय
हाँ हाँ
मुझे डर नहीं है अब
तुमको खोने का,
खोया उसे जाता है
जो हमसे पृथक हो,
पर तुम तो
मेरे भीतर की चेतन
साँसों जैसे हो,
तुम्हें तो उसी दिन
खोना होगा जब
मैं खुद को ही खो दूंगी।
-शालिनी पाण्डेय
क्या तुम लौटा पाओगे मुझे
वो सावन जो तुम्हारे इंतज़ार में
बिना बरसे ही लौट गया
क्या तुम लौटा पाओगे मुझे
वो सवेरा जोे दीदार की चाह
में कभी हो नहीं पाया
क्या तुम लौटा पाओगे मुझे
वो इंतज़ार जो बेवज़ह
मेरी आँखों में घिर आया
क्या तुम लौटा पाओगे मुझे
वो दरिया जो तुम्हारे प्यार में
झील सा रुक गया
क्या तुम लौटा पाओगे मुझे
वो सब कुछ जो कभी मेरा था
पर अब तुम्हारा हो गया ।
- शालिनी पाण्डेय
मानो एक ही रेखा के
दो छोर से है
स्त्री और पुरुष
जो कि
अपने अड़ियल पन में
विपरीत दिशाएँ अपनाकर
फासले की खाईयों को जन्म देते है
और
अपने लचीले स्वभाव में
अनुकूल दिशाएँ अपनाकर
एक दूसरे को सम्पूर्ण करते है।
- शालिनी पाण्डेय
धुंधला सा चांद
आया है आज
मेरी खिड़की पर,
इसका चेहरा
ठीक वैसा ही
दिखता है
जैसे तुम्हारा
चेहरा था
उस रोज
जब तुम
पहली बार
मिलने आये थे
बीमारी का
पीलापन लिए।
- शालिनी पाण्डेय
तुम जब जागोगे
तो शायद
मैं तुम्हारे शहर से दूर
निकल आयी होंगी
तुम अधखुली आंखों के
ख़्वाब में मुझे देखना
और मैं यादों में रखी
तुम्हारी सूरत निहार लूंगी।
- शालिनी पाण्डेय
तुम्हें क्या कहूँ ?
दोस्त,
हमराही या
हमसफ़र...
सोचती हूं,
तुम्हें कुछ ना कहूँ,
सिर्फ कहने से ही
तो होना नहीं होता।
--शालिनी पाण्डेय
हर वाक़ये पर
कैसे तुम मुझे
अलग अलग
तराजुओं में
तोल देते हो
आज मैं तुमसे
विनती करती हूं
बाहर की सूचनाओं
को आधार बना
मुझे तोलना बंद करो
जब तुमने कभी मेरे
भीतर की चेतना की ओर
झांका ही नहीं और
सृजन के कारक को
पहचाना ही नहीं
तो तुम कैसे मेरी
तुलना कर सकते हो?
-- शालिनी पाण्डेय
कुछ यादें
कोयले जैसी होती हैं
जो वक़्त के दबाव को सहकर
हीरे में तब्दील हो जाती हैं।
- शालिनी पाण्डेय
तुम्हारी याद में
खोए-खोए
मैं रच देती हूं
एक नया संसार ।
इस संसार में
पहाड़ की तलहटी पर
नदी किनारे बैठ कर
हम देखते है
सूरज के रंगों को
पानी में घुलते हुए
और बनाते है
ढेर सारी तस्वीरें
इन्हीं रंगों से ।
क्या तुम्हें याद है,
गर्मी की वो शाम
जब हमने बनाई
सबसे खूबसूरत तस्वीर ?
वहीं तस्वीर
जिसमें
यथार्थ की धूप के साथ
कल्पना की बूंदें
बारिश जैसे
बरस रही थी ।
- शालिनी पाण्डेय
तेरी याद में
कुछ लिखने
के लिए
आज शब्द
नहीं मिल रहे है
लगता है
अब कोई
नई डिक्शनरी
टटोलनी पड़ेगी .
- शालिनी पाण्डेय
अभी कल ही की बात है, जब मैंने एक कविता लिख कर अपने एक दोस्त को भेजी तो उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा "आत्मा देना सीख गई हो शब्दों को"।
मुझे नही पता कि वो कौन सी शक्ति है जो शब्दों को आत्मा देती है। लेकिन इतना जरूर जानती हूं कि कुछ लम्हें जिन्हें मैं जी भर के जी लेती हूं या फिर कुछ अनुभव जो मन को छू कर निकले होते है वो मेरे ज़ेहन के किसी कोने में संग्रहित हो जाते है और जब कभी यूँ ही बैठे रहो या लेटे रहो तो ये अनुभव शब्दों में पिरोते हुए चले आते है कलम से डायरी के पन्नों की ओर।
मुझे लगता है कुछ भी लिखने से पहले तुम एक बार उसे जी कर देखते हो या तो कल्पनाओं में या यथार्थ में और वो जिया हुआ लम्हा ही फ़िर तुम्हारी क़लम बोलती है शब्दों को चुनकर। कुछ लम्हों को बस जी लेना चाहिए बिना कल और परसों की चिंता किये बगैर। शायद जिये हुए लम्हें ही बेज़ान शब्दों में आत्मा फूंकने का काम करते होंगें।
- शालिनी पाण्डेय
उस रोज
जब तेरी
जलती सिगरेट
कोे अपने होठों
पे रखकर मैंने
पहला कश लिया
मैंने चखना
चाहा था तेरे
भीतर के दर्द को
अपने होठों से।
- शालिनी पाण्डेय
जब मैं टूटकर
मिल जाऊंगी नदी में
और भाप बन
समा जाऊंगी बादल में
तो फ़िर
एक रोज मैं
बरस जाऊंगी
तुम्हारी छत पर
बारिश की बूंदें बन
और भिगो दूंगी
तुम्हें खुद में।
- शालिनी पाण्डेय
अगर तुम साथ होगे
तो लड़ लूंगी मैं
हर उस बुराई से
जो लड़की के रूप में
जन्म लेते ही
मुझसे जोड़ दी गयी है
अगर तुम साथ होगे
तो तोड़ दूंगी हर उस
बेड़ी को जो मुझे
रिवाज़ों परम्पराओं
की उलाहना देकर
जकड़े रहना चाहती है
अगर तुम साथ होगे
तो पार कर लूंगी
हर उस आग के दरिये को
जो डर पैदा कर
मेरे विस्तार को
रोकना चाहता है
अगर तुम साथ होगे
तो छू लूंगी मैं
हर उस मुक़ाम को
जो स्त्री के
पैरों के निशान से
आज तक अछूता है।
- शालिनी पाण्डेय
तुम्हारी आंखें
रह रह कर
प्यार का
इज़हार करती है
सच कहूं तो
इन आँखों में
केवल प्यार नहीं है
प्यार मानो कुछ
देर तक चमकता है
तुम्हारी आँखों में
और फिर तुम
उसको लबों तक
लाये बिना ही
अपनी नजरें
नीची कर
आसूं के घूट जैसे
पी जाते हो।
उसके बाद फिर
तुम्हारी आँखों में
शेष रह जाती है
एक गहरी वेदना
जो मानो
कई वर्षों से
तुम्हारे भीतर
पल रही हो ।
- शालिनी पाण्डेय
संघर्ष खुद को
तेरे बारे में
समझाने का
अब ख़त्म
हो गया है
या
यूँ कहूं कि
पूरा हो गया है
क्यूंकि अब मैंने
तेरे भीतर
झाँक कर
जी लिया है
उन सभी सूरतों को
जो तू
लफ़्ज़ों से बयां
नहीं कर सका था।
-शालिनी पाण्डेय
वो आया
उस रोज
मेरे दरवाज़े तक,
वो ठहरा
उस रोज
मेरे आशियाँ पर,
वो अलग बैठा रहा
जब तक घुल ना गया
मेरी रूह से
फिर उसके
लब हिलते रहे
खामोश होने तक ।
- शालिनी पाण्डेय
काश !!
मैं नदी होती
तो बहा देती
तुम्हारे सारे दुखों को
अपने वेग से
और
दे जाती तुम्हें
मीठा मधुर संगीत
जीने के लिए।
- शालिनी पाण्डेय
निकल पड़ी हूं आज मैं
अपने यादों के शहर की ओर
देखो मैंने बढ़ा दिया है
एक कदम तुम्हारी ओर
आशा है अब तो तुम भी चलोगे
कुछ कदम मेरी ओर ।
- शालिनी पाण्डेय
अपने हिस्से का दर्द
सबको ख़ुद ही
सहना होता हैं
क्यूँकि
जश्न तो भीड़
और शोर शराबें में
मनाया जा सकता है,
लेकिन ग़म तो
तन्हाई और अकेले में ही
जिया जाता है।
- शालिनी पाण्डेय
अकेले में जब
लफ्ज़ नहीं होते
तू बहुत
करीब होता है
और वहीं
लफ़्ज़ों के
आ जाने से
तेरे और मेरे बीच
कुछ फ़ासला सा
बन जाता है।
- शालिनी पाण्डेय
वीराने में
तेरी याद के बुलबुले
कुछ यूं उठते है ,
जैसे खिल रहे हो
नागफ़नी के फूल
रेगिस्तान के उजाड़ में।
- शालिनी पाण्डेय
राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...