Monday 20 May 2019

आत्मा देना सीख गई हो शब्दों को

अभी कल ही की बात है, जब मैंने एक कविता लिख कर अपने एक दोस्त को भेजी तो उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा "आत्मा देना सीख गई हो शब्दों को"
मुझे नही पता कि वो कौन सी शक्ति है जो शब्दों को आत्मा देती है। लेकिन इतना जरूर जानती हूं कि कुछ लम्हें जिन्हें मैं जी भर के जी लेती हूं या फिर कुछ अनुभव जो मन को छू कर निकले होते है वो मेरे ज़ेहन के किसी कोने में संग्रहित हो जाते है और जब कभी यूँ ही बैठे रहो या लेटे रहो तो ये अनुभव शब्दों में पिरोते हुए चले आते है कलम से डायरी के पन्नों की ओर।
मुझे लगता है कुछ भी लिखने से पहले तुम एक बार उसे जी कर देखते हो या तो कल्पनाओं में या यथार्थ में और वो जिया हुआ लम्हा ही फ़िर तुम्हारी क़लम बोलती है शब्दों को चुनकर। कुछ लम्हों को बस जी लेना चाहिए बिना कल और परसों की चिंता किये बगैर। शायद जिये हुए लम्हें ही बेज़ान शब्दों में आत्मा फूंकने का काम करते होंगें।

- शालिनी पाण्डेय

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