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यात्रवृतान्त - आदि कैलाश और ॐ पर्वत ट्रैक

कई बार ऐसा होता है कि हम अपने रोजमर्रा के कार्यों में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हम अपनी हॉबीज की तरफ ध्यान देना लगभग भूल सा जाते हैं ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ लेकिन नव वर्ष पर मुझे पुनः प्रेरणा प्राप्त हुई की जिस कारण मैंने सोचा कि आज मैं आदि कैलाश और ओम पर्वत का जो ट्रैक मैंने 2023 के सितंबर महीने में 11- 13 तारीख़ को किया था उसके विषय में लिखने का प्रयास करूँ।

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, उत्तराखंड के प्रत्येक स्थान पर अनेकों देवी देवताओं का वास है। अगर बात करें कुमाऊं क्षेत्र की तो यहां पर भी अनेक प्रकार के देवी देवता विराजमान है। कैलाश पर्वत को भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ धारचूला से लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित व्यास घाटी तथा चौंदास घाटी अपने आप में एक रमणीय स्थान है। यह स्थान इतने खूबसूरत हैं कि इन्हें देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों तथा हिंदू ग्रंथो में वर्णित स्वर्ग की संज्ञा इन्हें देना अनुचित होगा।


ओम पर्वत/आदि कैलाश ट्रैक की शुरुआत धारचूला से होती है। धारचूला 940 मीटर की  ऊँचाई पर स्थित एक हिमालयी क़स्बा है जिसके बीच में से होकर काली नदी गुजरती है। काली नदी के पार वाले हिस्से को दार्चुला कहा जाता है और यह नेपाल देश का हिस्सा है। यहाँ रह रहे स्थानीय लोगों के मध्य अब भी देश की सीमा के पार रिश्तेदारियाँ मौजूद है। रहन सहन, संस्कृति में भी अत्यधिक समानता है। इस ट्रैक पर जाने के लिए हमें इनर लाइट परमिट की आवश्यकता होती है, जो कि धारचूला के सब मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया जाता है और उसके साथ ही हमें एक मेडिकल सर्टिफिकेट भी इसके साथ बनाना होता है। आप जब कभी भी इस ट्रैक पर आए तो ध्यान रखें कि वह दिन वर्किंग डे हो तभी आपको इनर लाइन परमिट जारी किया जा सकता है। अवकाश वाले दिन इनर लाइन परमिट लेने में आपको दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। ओम पर्वत तथा आदि कैलाश ट्रैक पर जाने के लिए जो मार्ग है वह काफी मुश्किलों भरा रहता है, इसलिए वहां जाने के लिए 4*4 गाड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि आपको आसानी से धारचूला से उपलब्ध हो जाती हैं। इनका किराया 20000 से 25000 प्रति गाड़ी आना और जाना मिलकर रहता है।
धारचूला से NH 09 से यात्रा शुरू करते हुए पहले हम तपोवन आते है। तपोवन के बाद हम पहुँचे दोबाट। फिर हम तवाघाट पहुँचे। तवाघात से फिर हम चौंदास घाटी वाले मार्ग में आगे को बढ़ें, यहीं से एक मार्ग दारमा घाटी के लिये जाता है। इसके बाद आता है पांगला। इसके बाद हमने मांगती नाले को पार किया। बरसात के मौसम में यह नाला उफान पर रहता है और हादसों का केंद्र बनता है। इसके बाद हम पहुँचे गर्भाधार। फिर आया लखनपुर। हमारे गाइड ने हमे बताया कि पैदल की जाने वाली कैलाश मानसरोवर यात्रा के समय यात्री यहाँ लंच किया करते थे। गाला से 44
44 सीढ़ियाँ कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए यहाँ थी। 

इसके बाद पहुँचे हम मालपा। पैदल कैलाश मानसरोवर  यात्रियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव हुआ करता था। यह वही गाँव है जिसने बीते वर्षों में अनेक आपदाओं का सामना किया है यह गाँव कई बार उजड़ा और पुनः बसा है। मालपा पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ गाँव था और 1998 भूस्खलन से पूरा पहाड़ इस गाँव के ऊपर मलवा बन कर ढहँ गया, जिसने पूरे गाँव को दफ़न कर दिया। पुनः  वर्ष 2013 में  बादल फटने से आयी भीषण आपदा ने यहाँ बसे आवासों को लील लिया था। यहाँ रोड साईड में एक झरना भी हमें देखने को मिला। इसके बाद हम पहुँचे लमारी गाँव। फिर आया बूँदी जो कि 2740 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस गाँव के निकट पालंग गाड़ आकर काली नदी में मिलती है। यहाँ हम चाय पीने रुके और अब हल्की बूँदा बादी शुरू हो गई थी और वातावरण में ठंड बढ़ चली थे, हम सभी ने अपने जैकेट निकाल कर पहन लिए थे। 

इसके बाद आती है छियालेख की चढ़ाई। यह स्थान 3400 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और  छियालेख को “कुमाऊं की फूलों की घाटी” के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर ITBP की चेक पोस्ट स्थित है जहां पर इनर लाइन परमिट दिखाकर ही आपको आगे की यात्रा के लिए एंट्री दी जाती है। पूरे रास्ते भर सड़क के दोनों ओर रंग बिरंगे फूल, मख़मली घास और देवदार के वृक्ष बाहें फैलाए आपका स्वागत करते है। यहाँ पहुँचते ही वातावरण में ठंडक काफ़ी बढ़ गई थी। छियालेख क्षेत्र की फूलों की घाटी को स्थानीय लोग त्रेता और द्वापर युग से जोड़ते हैं। माना जाता है कि जब भगवान राम कैलास क्षेत्र में आए तो उन्होंने छियालेख में प्रवास किया था। तब इस स्थान पर पुष्प रोपित किए थे। द्वापर युग में जब महर्षि वेदव्यास अपनी रचनाओं के लिए यहां आए और उन्होंने इस वाटिका को विस्तार दे दिया। तभी से छियालेख में विभिन्न प्रजाति के पुष्प खिलते आ रहे हैं। महर्षि व्यास के चलते ही इस घाटी को व्यास घाटी का नाम मिला। स्थानीय लोग बताते हैं कि इन पुष्पों में अमृत संजीवनी पुष्प भी शामिल है। अन्य सभी पुष्प भी औषधीय हैं जिन्हें जड़ी बूटी के रूप में प्रयोग में लाया जाता था। इस घाटी से पैदल कैलाश मानसरोवर यात्रा गुजरती थी और बूंदी गाँव से छियालेख की दूरी 03 किलोमीटर थी। अब सड़क आ गई है और बूँदी से छियालेख की दूरी 12 किलोमीटर की है और इस चढ़ाई को पार करने के लिए कुल 27 मोड़ आते है । 

छियालेख की सुंदरता 

छियालेख को पार करते हुए शाम हो चली थी और उसके बाद लगभग 6:30 पर हम पहुँचे सिंकिंग विलेज - गर्बियांग में । यहाँ SSB की चौकी पर परमिट चेक करवाते हुए हम आगे को बढ़े। गर्बियांग गाँव नदी द्वारा लाये रेत/अवसाद के टीले के ऊपर बसा हुआ गाँव है जो कि काफ़ी हद तक धँस गया है, मकानों में दरारें भी दिखाई देती है। इस गांव से काफी लोग भारतीय प्रशासकीय सेवाओं में रह चुके है। गर्बियांग गाँव के सामने ही उस पार नेपाल का छांगरु गाँव साफ़ दिखाई देता है और यहाँ का सीता पुल भारत को नेपाल से जोड़ता है। यहाँ घाटी U आकार की दिखाई देती है ।  

धारचूला से  72 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर शाम के लगभग 8 बजे हम अपने रात्रि विश्राम स्थल गुंजी पहुँचे। तब तक अंधेरा घना हो चुका था, बारिश अभी भी जारी थी और इस गाँव की ख़ूबसूरती हमें नहीं दिखाई दी। हम ऊँ पर्वत आदि कैलाश होम स्टे गुंजी में रुके। इस होम स्टे की रेलिंग और सीढ़ियों में काष्ठकला का काम देखने को मिलता है।  रात्रि में हमनें यहाँ के स्थानीय पेय 'चकती' का आनंद लिया और भोजन करके हम सोने चले गये। रात भर बारिश हो रही थी, जिस वजह से यहाँ काफ़ी ठंड थी ।
गुंजी गाँव काली और कुटी नदियों के संगम पर स्थित है।  यहाँ कुट्टू, राजमा , मटर आदि की खेती स्थानीय भोटिया समुदाय द्वारा की जाती है।  कुटी गाँव से निकलकर नाबी, रौकंग, नपालच्यो से होते हुए कुटी नदी गुंजी में काली नदी से मिल जाती है । 

अगली सुबह जल्दी उठकर देखा तो भी हल्की बारिश अभी भी हो रही थी। सुबह काफी ठंड थी और मुँह से हवा धुएँ के रूप में निकल रही थी। हल्के बादल थे, गूंजी में जिस होम स्टे में हम रुके थे वहाँ से सामने हिमालय की चोटी अन्नपूर्णा दिखायी दे रही थी। नाश्ता करने के बाद हम गाड़ी में बैठें और आदिकैलाश की तरफ़ के लिये निकले। थोड़ी दूरी पर नाभि गाँव आया। उसके बाद हम कुटी गाँव पहुँचे। 

गुंजी से अन्नपूर्णा 

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार पाण्डवों की माता कुंती के नाम पर कुटी गाँव का नाम आधारित है। इस गाँव में रहने वाले लोग तिब्बती लोगों को अपना पूर्वज बताते है, लिपुलेख पास के माध्यम से ये भारत में प्रवेश हुए। अज्ञातवास के दौरान पाण्डव इस स्थान पर रहे थे। आज भी यह स्थान वह गाँव के बीच में पाण्डव गुफ़ा नाम से सुरक्षित है और स्थानीय आस्था का केंद्र है। इस स्थान पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। पुराने समय में जब इस क्षेत्र में पक्की सड़क नहीं थी, उस समय गर्भाधार से कुटी गाँव तक स्थानीय लोग पैदल यात्रा करते थे जिसमें उन्हें कई दिन लगते थे। यहाँ रह रहे हिमालायन हाइलैंडर्स भी माईग्रेशन करते है । ये लोग अप्रैल माह से नवम्बर तक इसी गाँव में रहते है और ठंड के अत्यधिक बढ़ जाने पर नीचे क्षेत्रों की तरफ़ पलायन कर लेते है। यहाँ रात्रि विश्राम हेतु होम स्टे की सुविधा उपलब्ध है। हल्की हल्की बारिश अभी भी हो रही थी। हमनें चाय पी और मैगी खाई और इसके बाद हम अपनी यात्रा में आगे को बढ़ें। पूरा मार्ग बहुत ही मनोरम है, नदी के किनारे किनारे ही हमें जाना होता है और मार्ग में देवदार और भोजपत्र के वृक्ष इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देते है । यहाँ पाया जाने वाला देवदार कम ऊँचाई का था ।  

कुटी गांव

कुटी गाँव से 14 किलोमीटर की दूरी पर ज्यॉलिंकोंग है, यहीं से आदि कैलाश का पैदल ट्रेक आरंभ होता है । ज्यॉलिंगकोंग तक मोटर मार्ग उपलब्ध है। ज्यॉलिंगकोंग जब हम पहुँचे तब हल्की हल्की बारिश हो रही थी। हमने यहाँ से पार्वती सरोवर की तरफ़ पैदल ट्रैक आरंभ किया, जंगली तुलसी के पौधे अपनी सुगंध से पूरे मार्ग को महका रहे थे। जैसे ही हम आधे रास्ते में पहुँचे बर्फ़बारी शुरू हो गई और रूई के समान बर्फ हमारे आस पास गिरने लगी। मैंने पहली बार आज ही बर्फ़बारी देखी। मुझे बर्फ पर चलने का कोई अनुभव नहीं था इसलिए कई बार बर्फ पर में फिसल जा रही थी। पहाड़ जो अभी तक हरे दिखायी दे रहे थे बर्फ की चादर ओढ़ कर सफ़ेद हो गये। बर्फ ने पूरे के पूरे लैंडस्केप को बदल दिया। 


ज्योलिंगकांग
पार्वती मंदिर
पार्वती सरोवर पर बर्फबारी

अगली सुबह हम ॐ पर्वत के लिए निकले। ॐ पर्वत गुंजी गाँव से 22 किलोमीटर की दूरी पर है । कालापानी होते हुए हम नाबीढांग पहुँचे। कालापानी को काली नदी का उद्गम स्थान माना जाता है । 

लगभग 12000 फीट की ऊँचाई पर यहाँ काली माता का मंदिर स्थित है । पौराणिक कथाओं के अनुसार कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने वाला यात्री इस मंदिर के दर्शन करके आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। महान ऋषि वेद व्यास ने मंदिर के विपरीत दिशा में स्थित एक पहाड़ी पर कठोर तपस्या की थी जिसे व्यास गुफा कहते है। यहाँ एक विशाल पत्थर के नीचे से इस नदी का उद्गम माना जाता है। कई श्रद्धालु मन्नत माँगते हुए यहाँ सिक्के चढ़ाते है। आज मौसम साफ़ था, बारिश नहीं हो रही थी। हमने मंदिर में दर्शन किए, काली नदी के जल को स्पर्श किया और कुछ देर हम इसके समीप बैठे रहे। वातावरण में अजब क़िस्म की गहराई और सुकून था। 

आगे मार्ग में चलते हुए हमें शेषनाग पर्वत आदि के दर्शन होने लगे थे। कुछ समय पश्चात हम नाभिढांग पहुँच चुके थे। यहाँ से ॐ पर्वत के दर्शन होते है। सुबह आसमान साफ़ था लेकिन यहाँ पहुँचे तो हल्के हल्के बादल पर्वत को घेरे हुए थे। हमने काफ़ी देर बादलों के छटने का इंतज़ार किया लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ॐ पर्वत के आंशिक दर्शन ही हमें प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त नाभि पर्वत और शेषनाग पर्वत भी हमें दिखाई दिये। 
ॐ पर्वत 

यहाँ का लैंडस्केप बहुत ही मंत्रमुग्ध कर लेने वाला था। काफ़ी देर तक पहाड़ी के ढाल में लेटे हुए इस लैंडस्केप को मैंने अपने भीतर आत्मसाद करने का प्रयास किया। प्रकृति को इस रूप में महसूस करना मेरे लिए अत्यंत करीबी अनुभव था। पहाड़ी की ढाल पर छोटे छोटे फूल खिले हुए थे, इसकी ढाल पर लेटे हुए काफ़ी देर तक मैं प्रकृति को निहारती रही और उससे प्राप्त होने वाली ऊर्जा को अपने भीतर सोखती रही। 

यहाँ से लिपुलेख दर्रा कुछ ही दूरी पर है उसके बाद चीन की सीमा लग जाती है। लिपुलेख दर्रा भारतीय सीमा के एकदम आखिर में है और यहाँ भारत, नेपाल और चीन (तिब्बत) की सीमा आकर मिलती है। सेना के जवान यहाँ मौजूद थे और खच्चरों पर आवश्यक सामग्री को ले जा रहे थे। साल 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध से पूर्व भोटिया जनजाति इस दर्रे द्वारा तिब्बती लोगों से व्यापार किया करती थी। यह दर्रा भारतीय व्यापारियों को तिब्बत के तकलाकोट क्षेत्र से जोड़ता था। 


नक़्शा - गाँव कनेक्शन 

यह ट्रैक उच्च हिमालय क्षेत्र में किया गया मेरे द्वारा पहला ट्रैक था। इसलिए इस ट्रैक को करने के लिए मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी। इसी यात्रा के दौरान पहली बार मैंने बर्फ को गिरते हुए महसूस किया। बर्फ गिरने के बाद छा जाने वाली शांति को ओढ़कर पूरे हिमालयी क्षेत्र के बदले हुए श्वेत लैंडस्केप को देख कर मैं अभिभूत हुई। उच्च हिमालई क्षेत्र की इस यात्रा में मुझे सृष्टि के सृजनशीलता और विधवंस्ता दोनों के एक साथ दर्शन हुए। धरती की सृजनकर्ता और विनाशकारी शक्तियों का ऐसा स्वरूप देख कर मैं अवाक थी। पुनः मुझे सृष्टि की विशालता का एहसास हुआ।

- शालिनी 





मार्ग में काली नदी 


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एकांत

समाजशास्त्र का आधारभूत सिद्धान्त कहता है - "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है"। इसलिए प्रत्येक मनुष्य लोगों के एक समूह से हमेशा ही घिरा रहता है। वह साथ ढूंढता है, छोटे समय काल और जीवन भर के लिए । साथ की उपस्थिति वह सुरक्षित अनुभव करता है।  किन्तु मुझे लगता है सामाजिक प्राणी होने के साथ-साथ मानव एकांत प्रिय प्राणी भी है। कई बार ऐसा होता है, लोगों के समूह से घिरे रहते हुए आपके व्यवहार या सोच में कुछ बाहर से चीजें आ जाती है, जो आपकी अपनी वास्तविक स्वाभाविक नहीं होती। एकांत ही वो समय है जब हम अपने भीतर से संवाद करते  है और खुद को बाहरी आवरण से पृथक कर पाते है। साथ ही एकांत हमें मौका देता है अपने भावों को डूबकर महसूस करने का । चाहे वह भाव कोई भी हो- प्रेम, दुःख, ईर्ष्या, क्रोध, आदि। जब हम भाव को पूरी तन्मयता के साथ महसूस करते है तो हम उसके साथ साम्य स्थापित कर पाते है।  इसलिए जब कभी भी लगे कि वास्तविक आप कहीं खो रहे है या भावों से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे तो एकांत को चुनिए। एकांत में कई खूबियां है, एकांत के ताप में जलकर ही आप शांत चित्त पा सकेंगे।  - शालिनी पाण्डेय