Wednesday 29 April 2020

कलाकार की मृत्य

एक कलाकार अपने अभिनय से दर्शकों को हँसाता, रुलाता, गुदगुदाता तो है ही। लेकिन इसके साथ-साथ वो अपने अभिनय से झकझोरता है, आपके भीतर मरती जा रही इंसानी संवेदनाओं को। वो चीखने पर मजबूर करता है, आपके भीतर ठंडी हो कर, जम चुकी, दबी आवाज़ों को। 

उसके अभिनय से आप अपने भीतर के उन अँधेरे पहलुओं पर झांकने की हिम्मत जुटा पाते है, जिन्हें सूरज की रोशनी भी आपको नहीं दिखा पाती। अच्छा कलाकार जीवित रखता है आपके भीतर की बगावत को, आपके आत्म- सम्मान को। आपके भीतर मोहब्बत की बेल को पनपाने के लिए वो खाद, हवा, पानी जैसा काम करता है। अपने अभिनय से वो सभी धर्मों, सरहदों को छोटा साबित कर, आपको एक तर्कसंगत और संवेदनशील मनुष्य बनने हेतु प्रेरित करता है।

हाँ, मृत्यु नियति है, हर उसकी जिसके भीतर जीवन है। ये हम सभी जानते है कि "जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी एक दिन हो जानी है"। भले ही आप जैसे और हम जैसे असंख्य लोगों की मृत्यु के कोई मायने नहीं होते। 
लेकिन एक अच्छे कलाकार की मृत्यु के मायने होते है।
एक कलाकार की मृत्यु सिर्फ उसकी अकेले की मृत्यु नहीं होती, बल्कि उससे जुड़े असंख्य दर्शकों के जज्बातों, सपनों, उम्मीदों की भी मृत्य होती है। 

 - शालिनी पाण्डेय 

"इरफान खान की मृत्य पर एक दर्शक की श्रद्धांजलि"

Saturday 25 April 2020

यादों का पहाड़

ये जो
तेरे और मेरे
बीच के फासले है,
उन पर मैं
रोप दूंगी देवदार,
सभी दुःखोंं को इकट्ठा कर
बना दूंगी, एक नदी
और विचरने के लिए
बसा लूंगी, यादों का पहाड़।

- शालिनी पाण्डेय

कोरा पन्ना

मेरे पास
एक कोरा पन्ना है
जिसे मैं हर रोज
कुछ रंग देती हूँ

कभी खींच देती हूँ चित्र
कभी लिख देती हूँ कविता
कभी बना देती हूँ नदी
और कभी 
इसे मोड़कर इसके बीच में 
रख देती हूँ सूखा एक पत्ता

डूबते सूरज की उदासी, 
मिट्टी की सुगंध,
चिड़ियों के गीत से भी
मैं रंगती हूँ इसे ।

कई बार रात-रात भर
जागकर रंगती हूं इसे
मेरे ऊपर गिर रहे
पुरानी यादों के टुकड़ों से।

पर इतना रंगने पर भी
हमेशा आधी-अधूरी सी 
तस्वीर ही बन पाती है

क्या जिस दिन 
पूरी तस्वीर बनेगी,
उस दिन पूरा हो जाएगा जीवन??

- शालिनी पाण्डेय

दिल की जेब

मेरे दिल की जेब 
प्यार का सीपी संजोये हुए है
समंदर किनारे बटोरी
यादों भरी रेत समेटे हुए है.....  

आज भी जब कभी 
टटोलती हूँ इस जेब को 
तो लहरें तेरा प्यार 
मेरी साँसों तक ले ही आती है..... 

- शालिनी पाण्डेय 

चांद के घाव

आज रात
छत पर जाते ही  
फूट-फूट कर
रोने का मन किया, 
चांद की चमक के पीछे छुपे
घावों को देख लेने भर से।

- शालिनी पाण्डेय 

तुम कुछ नहीं कहते

गहरे दर्द में भी
तुम कुछ नहीं कहते,
बस, उसे छुपा लेते हो
अपने भीतर की तहों में.... 

जैसे छिपा लेती हैं
धरती अपने अंदर
उजड़े पहाड़ों और
जंगलों की वेदना को....

- शालिनी पाण्डेय

Friday 24 April 2020

गुलमोहर

तुम्हें याद है
गुलमोहर का पौधा,
वर्षों पहले जिसको
लगाया था,
आंगन में ?

हवा के साथ
हर सवेरे 
उसकी पंखुड़ियां 
गुनगुनाती है,

कोई मौसम
अब चुरा ना सकेगा
तेरी खुशबू, 
यूं ही
हर रोज
तू महका करेगा
मेरे दामन में।

- शालिनी पाण्डेय 


लिखने वाले के भीतर

लिखने वाले के भीतर
मौजूद रहते है
एक साथ कई किरदार,
किरदार जिन्हें वो
अपने आस-पास से
अनायास ही बटोर 
लेता है...

किरदार जिनसे वो
तन्हाई में बातें करता है,
जो रातों की
नींद उड़ा ले जाते है..

किरदार, जो उसके साथ
भीड़ का हिस्सा बनते है..
कुछ साथ में खाते,
साथ में मुस्कुराते भी है..

पर इनमें से कुछ किरदार 
तो अभिव्यक्ति पाकर
जवां हो जाते है
और कुछ 
शब्दों के आभाव में
दम तोड़ देते है।

- शालिनी पाण्डेय 

Tuesday 21 April 2020

छोटी कहानी : 3

मैं लौट जाऊंगी, एक दिन पहाड़ को ...
कब ??.......  ये निश्चित तौर पर अभी नहीं कह सकती।

शायद जब कंक्रीट से मन ऊब जायेगा तब या फिर शायद जब नौकरी मिल जाएगी या फिर शायद तब, जब अम्मा की कहानियों और जीवन के किरदार मेरा हाथ पकड़ मुझे खींच ले जायेंगे, उन सभी जगहों पर जो मेरी कल्पनाओं को रंगते हैं, वो किरदार जो अम्मा ने मुझे दिए, पुरखों की धरोहर के रूप में। अभी तक पहाड़ की दुनिया का चित्र मैंने बस उनके जीवन को सुन कर खींचा हैं।  मैंने पहाड़ को उनके किस्से और कहानियों के रूप में जिया हैं;  मेरी खुद की कोई कहानी नहीं है पहाड़ पर।

भाभर में मैंने उनको सफ़ेद साड़ी में ही देखा । उनके सुखी और सुहागन होने को मैंने बुरांश के बूटों, घास के डानों, बण को ले जाने वाले खाजों, मडुए से भरे भकार, अखरोट के पेड़, नौले के पानी, पनार की गाड़, घट्ट पीसने, ब्यासी में देवता पूजने, तल बाखई की चहलपहल, तौली में भात पकाने, सकुन आखर गाने, ठुल कुड़ी वाले पड़ोसियों आदि से जोड़ दिया। इन सभी चीजों से बिछड़ने की टीस और भाभर आने पर दादा की मौत के दुःख से वो आखिरी सांस तक जद्दोज़हद करती रही। अपने आखिरी सालों में, उन्होंने अपना वर्तमान काफी हद तक भुला दिया था, कभी-कभी वो मुझे भी पहचाने से इनकार कर देती थी।  उन दिनों वो अक़्सर अपने अतीत को पहाड़ पर जीती थी। बैचैन रातों में जब अतीत वर्तमान पर हावी हो जाता तो वो अपने सामान  की गठरी बनाती और उसे अपने सिर पर रखकर निकल पड़ती पहाड़ को।  नतीज़न फिर कोई पड़ोसी या परिचित उन्हें वापस हमारे घर पहुंचाने आता। कई बार उस बेचैनी और दर्द में वो कहती - "इजा को छे तु ?.....  इजा का छू मैं?......  कैक कुड़ी छ य? .....  पोथी मेके म्यर घर पुजा दे।"

इसी बैचनी मे वो इस दुनिया से विदा हो गयी और मैं इन आख़िरी पलों में उनके साथ नहीं रह पायी। उनके चले जाने के बाद मैैंने महसूस की वही पीड़ा, वही बैचेनी, अपने भीतर भी। मुझे लगता है शायद ये उनका आशिर्वाद था मेरे लिए। उन्होंने बचपन में मुझे अपना खूबसूरत पहाड़ दिखाया, मेरे मन पर पहाड़ की जितनी भी स्मृतियाँ हैं सब अम्मा की जी हुई हैं।

आज मैं खुद से सवाल करती  हूँ - क्या ये स्मृतियाँ उन्होंने इस आस में मुझे सौंपी कि बड़ी होने पर मैं उन्हें उनके घर पहुंचा सकूँ, उन्हें फिर से पहाड़ दिखा सकूँ? उसके बाद मैं कल्पना करती हूं कि पहाड़ लौटकर, मैं अम्मा को उनका घर दिखा रही हूँ, जैसे वो दिखाया करती थी। वो सभी जगहें समेट कर मैंने उनके आँचल में रख दी हैं जिनसे उनका सुख जुड़ा हुआ था।

ये कल्पना, मेरी बेचैनियों को और भी बढ़ा देती है और साथ ही वापस लौटने की इच्छा को भी दृढ कर देती है। फिर मुझे महसूस होता है, सम्भवतः जिस दिन ये बेचैनियाँ इनती बढ़ जायेंगी कि मेरी अस्थिरताओं, स्थूल आवश्यकताओं पर हावी हो जायेंगी, शायद उस दिन मैं लौट जाऊंगी पहाड़ को.......


- शालिनी पाण्डेय

Monday 20 April 2020

छोटी कहानी : 2

देख तो, झील फिर से डबाडब भर गई है। हाँ, इस साल काफी बरसात हुई ना, दूसरी सहेली ने उत्तर दिया। 

यार, उदयपुर मैं तो काफी पानी है, इसे देखकर लगता नही कि राजस्थान में है। दूसरे पर्यटक ने कहा - हाँ, यहाँ का राजा समझदार था, इसलिए इतनी बड़ी झील बनवाई।

एक प्रेमिका अपने प्रेमी से - "कितना खूबसूरत सूर्यास्त है, लगता है जैसे कैनवास पर जैसे उजले रंगों को उड़ेल दिया हो।"

मिसेज गुप्ता अपनी बेटी से- सुधा, तुम और मानव भी ये राजस्थानी पोशाक पहन कर फ़ोटो खिंचवा लो ना, सुन्दर लगेगी तुम दोनों पर। 

लड़की, लड़के से गले मिलने के बाद विदा लेते हुए- चल अब मैं निकलती हूँ घर, सात बजने वाले है। वरना मम्मी आज भी सुनाएगी कि रोज देर से आती है कॉलेज से।

ऐसे ही कितने वार्तालाप पिछोला बरसों से सुनती आ रही है। हर मौसम, कितने ही लोग इसके सामने मिलते और जुदा होते है। कितने ही सुख-दुःख के किस्से इसके किनारे बैठ कर साँझा हुए होंगें। हम एक बार भी अगर किसी से मिलते है तो उसकी कुछ स्मृति हमारे मस्तिष्क पर अंकित हो ही जाती है। फिर पिछोला तो हर दिन सैकड़ों लोगों से मिलती-बिछुड़ती है, उनकी उदासियों, जश्नों, उमंगों, तलबों से भरे किस्से सुनती है। मैं सोचती हूँ, इस झील की लहरों पर ना जाने कितनी ही स्मृतियां बहती होंगी, जिन्हें इकट्ठा करके ढेरों कविताएँ, कहानियां और उपन्यास लिखे जा सकते है।  काश!! मैं भी थोड़े समय के लिए पिछोला बन पाती। 

- शालिनी पाण्डेय 



छोटी कहानी : 1

हाँ, मैं निराश हो जाती हूँ कभी। निराश होने पर मैं सब काम अनमने ढंग से करती हूं। तब मुझे कुछ करने का मन नहींं करता। तब मेरा दिल चाहता है कि बस तुम्हारे कांधे पर सिर टिकाकर झील के पानी को देखती रहूँ। या फिर रानी रोड के किनारे बैठकर तुम्हारे साथ चांदनी रात को निहारूँ या फ़िर झील के किनारे-किनारे तुम्हारा हाथ थामे चलते रहूँ। या फिर साथ में हम किसी पहाड़ की चोटी पर चले। या फिर किसी बड़े से पत्थर पर बैठकर, पैरों को पानी में डुबोये हुए, नदी का संगीत सुने । या फिर तुम मेरे सामने बैठे रहो और मैं तुम्हें पलक झपकाएं बिना यूं ही देर तक देखती रहूँ। या फिर तुम्हारी बालों पर अपनी अंगुलियां चलाती रहूँ। या फिर चाय पीते हुए, तुम्हारे प्याले में से एक घूट चुरा लूं। 

तुमसे दूर रहते हुए मन कभी उचट सा जाता है, तब मुझे तुम्हारे अलावा जीने की कोई वजह नज़र ही नहीं आती। मुझे तब महसूस होता है ये डिग्री, पैसे, समय, किताबें, गीत, कविताएं, सब व्यर्थ है अगर तुम्हारा साथ ना हो तो। तब मुझे हर तरफ तुम और तुम्हारी यादें नज़र आती है। तब इन्हीं यादों के बीच, मैं कल्पना करती हूं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, और दूर एक पहाड़ी पर हमारा एक घर है, लकड़ी वाला, जहाँ सुबह की गुनगुनी धूप हमारे चेहरों को चूम कर आलस को भगाती है। दरवाज़े के ठीक सामने हिमालय की लंबी-लंबी पर्वत श्रृंखलाएं बाहें फैलाये हमारा स्वागत करती है।

इसे पढ़ने पर तुम्हें लगेगा कि ऐसा वास्तविकता में थोड़े ही होता है ऐसा तो बस कल्पनाओं में ही हो सकता है। तो कोई बात नहीं। मैं कहूंगी कि कभी कभार कल्पनाओं में जीने में जो आनंद है वो वास्तविकता में नहीं। इसीलिए मन के उचट जाने पर, मैं वास्तविकता से दूर कल्पना के बादलों की सैर कर लेती हूं।

-  शालिनी पाण्डेय 

Sunday 19 April 2020

उलझे हुए

उम्र के हर पड़ाव
पर हम सब
कितने उलझे हुए है,
हर ओर खड़े
हम पाते है कि
कुछ तो छूट रहा है
जो जरूरी था
किसी की तो कमी है इस ओर...

और द्वंदों से घिरे हुए
अपनी थके प्राण
को आराम देने के प्रयास में 
हर रात, 
ये भरम लिए 
सो जाते है 
कि शायद 
कल सुबह एकमत होगा।

- शालिनी पाण्डेय 



पटरी पर

देखो !!
समय की पटरी पर
जीवन भाग रहा है, 

कुछ फिसल गया
कुछ निकल गया
कुछ निकला जा रहा है...

बीते दिनों की ग्लानि लिए
भविष्य की अनिश्चितता लिए,
देखो !!
समय की पटरी पर
जीवन भाग रहा है। 

- शालिनी पाण्डेय 



Saturday 18 April 2020

माँ

ये सच है कि कई बार
अपनी दुनिया में उलझे हुए
मैं भूल जाती हूँ
तुम्हें फ़ोन करना,

मैं कई बार तुमसे ये भी
नही पूछती कि
"क्या तुमने खाना खाया?
तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं?"

कई बार फ़ोन रखने से पहले
मैं भूल जाती हूँ तुमसे कहना-
"अपना ध्यान रखना"

लेकिन माँ,
अपनी सारी उलझनों में भी
तुम ये सब 
कभी भी नहीं भूलती....

- शालिनी पाण्डेय 




Thursday 16 April 2020

वो प्रेम है

वो जो महसूस होता है 
हथेलियों को छूने पर,
वो जो भर आता है, आंखों में 
और फिर चमक उठता है, कपाल पर
वो प्रेम है...

वो जो उमड़ता है, आलिंगन में
और टीस बन जाता है, जुदाई पर
वो जो उतरता है, रोम-रोम में 
और भिगो देता है, सभी कुछ
वो प्रेम है...

उसे शब्दों में बाँँधा नहीं
जा सकता,
ना ही शब्दों से
तोला जा सकता है,
उसे तो बस जिया जा सकता है
मौन के पलों में 
मेरे द्वारा, तुम्हारे द्वारा।

- शालिनी पाण्डेय 

चाह

 गहरा सा कुछ पन्ने पर लिखूं और खो जाऊं
चाह है अगले  सभी जन्मों भी तुम्हें ही पाऊं ।

- शालिनी पाण्डेय 

मैं सोचती थी

मैं सोचती थी
कोई कविता लिखूँ
तुम्हारे लिए
मेरे लिए
और उन सभी
प्रेमिकाओं के लिए
जिन्होंने अपने
प्रेमियों से
बिछड़ने का
दर्द महसूस किया...

लेकिन,
मैं नहीं लिख पाई
ऐसी कोई कविता,
मैं बहुत नासमझ थी
या यूं कहूँ
असमर्थ थी,
कभी शब्द नहीं मिले
कभी वक़्त ने उलझाए रखा...
और अब
महामारी के इस दौर में
जब कुछ शेष नहीं रह गया
मैं ये कविता
लिखने बैठी हूं...

क्योंकि अब भी 
चाय की प्याली पर
तुम्हारे होठों का स्वाद 
महसूस हो रहा है,

गुलाबी पंखुड़ियों 
पर ठहरी ओस से
तुम्हारा प्यार
चू रहा है,

आज भी उस पुल पर, 
ढलती शामें
मिलन की आस का
इंतज़ार करती है,

रास्ते में बिखरे ठीठों
को अब भी लगता है
किसी रोज हम और तुम
उन्हें बटोरने आएंगे....

- शालिनी पाण्डेय 


Wednesday 15 April 2020

पुरखों के बनाये रास्तें

रास्ते, 
जो बनते चले गए
हमारे असंख्य पुरखों
की यात्रा से,

वो यात्रा 
जो उन्होंने तय की
जंगल से निकल कर
सभ्यता बसाने में,
आदिम जनजाति से 
सभ्य समाज के निर्माण की यात्रा...

यात्रा के इस क्रम में
बनते चले गए
असंख्य रास्ते
अलग-अलग गंतव्य की ओर,
और इन्हीं 
असंख्य रास्तों के बीच
जारी है मेरी खोज... 

उस राह की खोज 
जो मुझे पहुँचा सके 
वापस इस सभ्यता से 
पुरखों के बसाये 
पहाड़ की ओर।

- शालिनी पाण्डेय


अतीत के चेहरे

कभी-कभी राह में 
लौट कर आ जाते हैं
अतीत के चेहरे
पुरानी तस्वीरें लिए...

कभी जब वो झुंड में
एक साथ चले आते है
मधुमक्खियों जैसे,
तो बना डालते है
यादों का छत्ता,
और उसे भर देते है
प्यार के शहद से,
वो पराग के साथ
चुन लाते है,
सभी सपने
जो हम और तुम
भूल रहे थे दिनचर्या में,

और फिर से बुन कर
सच कर देते है 
वही मीठा लम्हा..
हाँ, हाँ,
उतना ही मीठा,
उतना ही सच्चा,
जितने की तुम
और तुम्हारा प्रेम। 

- शालिनी पाण्डेय


Sunday 12 April 2020

बीज

याद है तुम्हें
वो छाना का गाँव,
जहाँ खेल-खेल में
मैं बन जाती थी
तुम्हारी ब्योली...

और तुम्हारे साथ 
खेतों में बोती थी
लाई, मडुआ, झंगोरा, 
गेंहू और चौलाई...

आगे-आगे तुम बैल
हॉकते हुए,
पंक्ति बनाते जाते...
और पीछे-पीछे
मैं उसमें 
बीज बोती जाती...

तब साथ में हमने
कई फसलें बोई
और एक अंतराल के बाद काटी,

फिर मैं चूल्हे पर
तुम्हारे लिए
मडुए की रोटी,
चौलाई का साग बनाती,
जिसे तुम अपने साथ 
बण को बाँध ले जाते....

और अब 
जब खेत, खलिहान, 
चूल्हा और तुम 
पीछे छूट गए हो,
और पढ़ते-पढ़ते
मैं निकल आयी हूँ
शहर की ओर
जहाँ कुछ भी बोने की
जगह नहीं है...

लेकिन अब भी
फुरसत मिलने पर
मैं बो देती हूं 
तुम्हारे प्यार से उपजी 
कविता के बीज,
जो फसल बनकर
मेरी डायरी के पन्नों में 
इकट्ठा हो रहे है .....

-शालिनी पाण्डेय 

ब्योली: Wife
बण : Forest
मडुआ: Ragi
चौलाई : Amaranth

Wednesday 1 April 2020

छुट्टी वाली सुबह

हर छुट्टी वाली सुबह
तुम निकल जाते हो
पहाड़ों की ओर
किसी खोज में,

हर मोड़ पर रुक कर
देखते हो कि
शायद कहीं आज वो
तुम्हारा इंतज़ार कर रही हो

बनाते हो पुल
नदी के उस पार रह
रही प्रेमिका के लिए,
पत्थर पर बैठकर
दिन भर 
तलाशते हो
सम्भावनाओं को

और फिर थककर
शाम को लौट आते हो
कुछ नई तस्वीरों,
नई कविताओं के साथ।

- शालिनी पाण्डेय 



हिमालय की अछूती खूबसूरती: पंचाचूली बेस कैंप ट्रैक

राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...