हाँ, मैं निराश हो जाती हूँ कभी। निराश होने पर मैं सब काम अनमने ढंग से करती हूं। तब मुझे कुछ करने का मन नहींं करता। तब मेरा दिल चाहता है कि बस तुम्हारे कांधे पर सिर टिकाकर झील के पानी को देखती रहूँ। या फिर रानी रोड के किनारे बैठकर तुम्हारे साथ चांदनी रात को निहारूँ या फ़िर झील के किनारे-किनारे तुम्हारा हाथ थामे चलते रहूँ। या फिर साथ में हम किसी पहाड़ की चोटी पर चले। या फिर किसी बड़े से पत्थर पर बैठकर, पैरों को पानी में डुबोये हुए, नदी का संगीत सुने । या फिर तुम मेरे सामने बैठे रहो और मैं तुम्हें पलक झपकाएं बिना यूं ही देर तक देखती रहूँ। या फिर तुम्हारी बालों पर अपनी अंगुलियां चलाती रहूँ। या फिर चाय पीते हुए, तुम्हारे प्याले में से एक घूट चुरा लूं।
तुमसे दूर रहते हुए मन कभी उचट सा जाता है, तब मुझे तुम्हारे अलावा जीने की कोई वजह नज़र ही नहीं आती। मुझे तब महसूस होता है ये डिग्री, पैसे, समय, किताबें, गीत, कविताएं, सब व्यर्थ है अगर तुम्हारा साथ ना हो तो। तब मुझे हर तरफ तुम और तुम्हारी यादें नज़र आती है। तब इन्हीं यादों के बीच, मैं कल्पना करती हूं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, और दूर एक पहाड़ी पर हमारा एक घर है, लकड़ी वाला, जहाँ सुबह की गुनगुनी धूप हमारे चेहरों को चूम कर आलस को भगाती है। दरवाज़े के ठीक सामने हिमालय की लंबी-लंबी पर्वत श्रृंखलाएं बाहें फैलाये हमारा स्वागत करती है।
इसे पढ़ने पर तुम्हें लगेगा कि ऐसा वास्तविकता में थोड़े ही होता है ऐसा तो बस कल्पनाओं में ही हो सकता है। तो कोई बात नहीं। मैं कहूंगी कि कभी कभार कल्पनाओं में जीने में जो आनंद है वो वास्तविकता में नहीं। इसीलिए मन के उचट जाने पर, मैं वास्तविकता से दूर कल्पना के बादलों की सैर कर लेती हूं।
- शालिनी पाण्डेय
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