Thursday 16 April 2020

मैं सोचती थी

मैं सोचती थी
कोई कविता लिखूँ
तुम्हारे लिए
मेरे लिए
और उन सभी
प्रेमिकाओं के लिए
जिन्होंने अपने
प्रेमियों से
बिछड़ने का
दर्द महसूस किया...

लेकिन,
मैं नहीं लिख पाई
ऐसी कोई कविता,
मैं बहुत नासमझ थी
या यूं कहूँ
असमर्थ थी,
कभी शब्द नहीं मिले
कभी वक़्त ने उलझाए रखा...
और अब
महामारी के इस दौर में
जब कुछ शेष नहीं रह गया
मैं ये कविता
लिखने बैठी हूं...

क्योंकि अब भी 
चाय की प्याली पर
तुम्हारे होठों का स्वाद 
महसूस हो रहा है,

गुलाबी पंखुड़ियों 
पर ठहरी ओस से
तुम्हारा प्यार
चू रहा है,

आज भी उस पुल पर, 
ढलती शामें
मिलन की आस का
इंतज़ार करती है,

रास्ते में बिखरे ठीठों
को अब भी लगता है
किसी रोज हम और तुम
उन्हें बटोरने आएंगे....

- शालिनी पाण्डेय 


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