Tuesday 21 April 2020

छोटी कहानी : 3

मैं लौट जाऊंगी, एक दिन पहाड़ को ...
कब ??.......  ये निश्चित तौर पर अभी नहीं कह सकती।

शायद जब कंक्रीट से मन ऊब जायेगा तब या फिर शायद जब नौकरी मिल जाएगी या फिर शायद तब, जब अम्मा की कहानियों और जीवन के किरदार मेरा हाथ पकड़ मुझे खींच ले जायेंगे, उन सभी जगहों पर जो मेरी कल्पनाओं को रंगते हैं, वो किरदार जो अम्मा ने मुझे दिए, पुरखों की धरोहर के रूप में। अभी तक पहाड़ की दुनिया का चित्र मैंने बस उनके जीवन को सुन कर खींचा हैं।  मैंने पहाड़ को उनके किस्से और कहानियों के रूप में जिया हैं;  मेरी खुद की कोई कहानी नहीं है पहाड़ पर।

भाभर में मैंने उनको सफ़ेद साड़ी में ही देखा । उनके सुखी और सुहागन होने को मैंने बुरांश के बूटों, घास के डानों, बण को ले जाने वाले खाजों, मडुए से भरे भकार, अखरोट के पेड़, नौले के पानी, पनार की गाड़, घट्ट पीसने, ब्यासी में देवता पूजने, तल बाखई की चहलपहल, तौली में भात पकाने, सकुन आखर गाने, ठुल कुड़ी वाले पड़ोसियों आदि से जोड़ दिया। इन सभी चीजों से बिछड़ने की टीस और भाभर आने पर दादा की मौत के दुःख से वो आखिरी सांस तक जद्दोज़हद करती रही। अपने आखिरी सालों में, उन्होंने अपना वर्तमान काफी हद तक भुला दिया था, कभी-कभी वो मुझे भी पहचाने से इनकार कर देती थी।  उन दिनों वो अक़्सर अपने अतीत को पहाड़ पर जीती थी। बैचैन रातों में जब अतीत वर्तमान पर हावी हो जाता तो वो अपने सामान  की गठरी बनाती और उसे अपने सिर पर रखकर निकल पड़ती पहाड़ को।  नतीज़न फिर कोई पड़ोसी या परिचित उन्हें वापस हमारे घर पहुंचाने आता। कई बार उस बेचैनी और दर्द में वो कहती - "इजा को छे तु ?.....  इजा का छू मैं?......  कैक कुड़ी छ य? .....  पोथी मेके म्यर घर पुजा दे।"

इसी बैचनी मे वो इस दुनिया से विदा हो गयी और मैं इन आख़िरी पलों में उनके साथ नहीं रह पायी। उनके चले जाने के बाद मैैंने महसूस की वही पीड़ा, वही बैचेनी, अपने भीतर भी। मुझे लगता है शायद ये उनका आशिर्वाद था मेरे लिए। उन्होंने बचपन में मुझे अपना खूबसूरत पहाड़ दिखाया, मेरे मन पर पहाड़ की जितनी भी स्मृतियाँ हैं सब अम्मा की जी हुई हैं।

आज मैं खुद से सवाल करती  हूँ - क्या ये स्मृतियाँ उन्होंने इस आस में मुझे सौंपी कि बड़ी होने पर मैं उन्हें उनके घर पहुंचा सकूँ, उन्हें फिर से पहाड़ दिखा सकूँ? उसके बाद मैं कल्पना करती हूं कि पहाड़ लौटकर, मैं अम्मा को उनका घर दिखा रही हूँ, जैसे वो दिखाया करती थी। वो सभी जगहें समेट कर मैंने उनके आँचल में रख दी हैं जिनसे उनका सुख जुड़ा हुआ था।

ये कल्पना, मेरी बेचैनियों को और भी बढ़ा देती है और साथ ही वापस लौटने की इच्छा को भी दृढ कर देती है। फिर मुझे महसूस होता है, सम्भवतः जिस दिन ये बेचैनियाँ इनती बढ़ जायेंगी कि मेरी अस्थिरताओं, स्थूल आवश्यकताओं पर हावी हो जायेंगी, शायद उस दिन मैं लौट जाऊंगी पहाड़ को.......


- शालिनी पाण्डेय

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