दिन 01
सुबह के साढ़े तीन बजे है और मेरी नींद खुली। अलार्म चार बजे का लगाया था और नींद अपने आप खुल गई । मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी ।वैसे तो मैं जल्दी उठने वाले लोगों की श्रेणी में नहीं आती किंतु अगर कोई यात्रा करनी हो तो मैं जल्दी से जल्दी उठ सकती हूँ। क्योंकि सुबह पाँच बजे की गाड़ी थी, चार बजे का अलार्म लगाया था, लेकिन नींद उससे पहले ही खुल गई। आज मुझे काफ़ी यात्रा करनी थी। कोश्यारी जी की गाड़ी पाँच बजे मुझे पिक करने आ गई थी, अक्टूबर का महीना था तो इस समय थोड़ा अंधेरा सा ही था। दस बजे मैं बागेश्वर पहुँच गई थी । वहाँ से दूसरी गाड़ी ले कर गरुड़ पहुची। यहाँ से मुझे कर्णप्रयाग वाली गाड़ी लेनी थी। गरुड़ से कर्णप्रयाग की दूरी लगभग 98 किलोमीटर है । गरुड़ से कर्णप्रयाग को नियमित रूप से एक ही गाड़ी चलती है । कर्णप्रयाग वाली गाड़ी मेरे पहुँचने के थोड़ा देर बाद वहाँ आ गई थी । गाड़ी के चालक रघु दा थे , वे उम्र में काफ़ी उम्रदराज़ थे। वे बता रहे थे कि इस रूट में गाड़ी चलाते हुए उन्हें सोलह साल हो गये हैं । वे रास्ते में आने वाले हर एक पड़ाव से भली भाँति परिचित थे। हमने नामक स्थान पर दिन का भोजन किया।
हम आगे बढ़े और रास्ते में दंगोली, सिरकोट , ग्वालदम , तलवाड़ी, थराली , पैठनी, पंती, नरेनबगर , मौना, बागलोई , रतुरा, कराकोट , बनगांव तल्ला और सिमली होते हुए शाम के चार बजे कर्णप्रयाग पहुँचे।थराली से कर्णप्रयाग के सभी स्थान पिंडर नदी घाटी में स्थित है और पिंडर नदी इस मार्ग में हमारे साथ साथ चल रही होती है। बनगांव तल्ला और सिमली के बीच से ही एक रास्ता उत्तराखण्ड की ग्रीष्म क़ालीन राजधानी ग़ैरसैन के लिए कटता है। ग़ैरसें नहीं तो चलो वहाँ को जाने वाले रास्ते को तो देखा, यही सोच कर मुझे अच्छा महसूस हुआ।
कर्णप्रयाग पिंडर नदी और अलकनंदा नदी का संगम स्थल है। पिंडर नदी पिंडारी ग्लेशियर से निकल कर यहाँ पर अलकनंदा नदी में मिल जाती है । पुल पर जाकर हमने इन दोनों नदियों के संगम को देखा। इसके बाद कर्णप्रयाग से रुद्रप्रयाग के लिए हमने टैक्सी ली और एक घंटे की यात्रा के बाद हम रुद्रप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग से रुद्रप्रयाग की यात्रा अलकनंदा नदी के साथ-साथ की गई। रास्ते में गौचर, नाग्रासु , घोलतिर , रतुरा , सुमेरपुर, डूंगरा पड़ाव आये। रुद्रप्रयाग पर अलकनंदा नदी और मंदाकिनी नदी का संगम स्थल है । शाम के लगभग साढ़े पाँच बज रहे होंगे जब हम रुद्रप्रयाग पहुँचे। अब यहाँ से हमे आगे गुप्तकाशी या सोनप्रयाग के लिए गाड़ी पकड़नी थी। यहाँ मिलने वाली सवारी गाड़ियाँ जब तक सारे पैसेंजर पूरे ना भर जाये आगे नहीं चलती। कुछ देर इंतज़ार करने के बाद सवारियों हो गई और हमारी गाड़ी आगे की यात्रा के लिए चल पड़ी। अब आगे की यात्रा हमें मंदाकिनी नदी के साथ करनी थी। आगे के पूरे रास्ते के लिए मंदाकिनी नदी मेरी हमराही थी। आगे तरवारी , मथियाना, तिलवारा, सिसु, सिल्ली, स्वर गढ़ , अगस्त मुनि, सौढ़ी , बेडू बगड़ , चंद्र पुरी, नगर्सल, भीरी, काकड़ा , सिंगोली, गुप्तकाशी, नाला, नारायनकोती , खुमेरा, धार गाँव होते हुए हम फाटा पहुँचे।
गरुड़ से फाटा तक की दूरी लगभग 184 किलोमीटर थी। पिथौरागढ़ से बागेश्वर की दूरी 130 किलोमीटर है। कुल मिला कर आज के दिन मैंने 350 किलोमीटर की यात्रा की। पिथौरागढ़ ज़िले से यात्रा शुरू कर, बागेश्वर ज़िले से होते हुए , चमोली ज़िले और रुद्रप्रयाग ज़िले में पहुँची । आज के रास्ते में सुबह थल पर रामगंगा नदी को पार किया, फिर बागेश्वर में सरयू को और गरुड़ में गोमती नदी को , और फिर पिंडर नदी को , फिर अलकनंदा नदी को और फिर मंदाकिनी नदी घाटी के दर्शन हुए।
फाटा से हमारा होटल २ किलोमीटर की दूरी पर था। होम स्टे वाले मैनेजर गाड़ी ले कर हमे लेने आये हुए थे। लगभग बीस मिनट बाद हम अपने रिसोर्ट पहुँचे। रात का डिनर काफ़ी सादा सा था, जिसमें रोटी, दाल सब्जी और चावल सलाद था। मैंने खाना खाया, नहाया और फिर मैं सोने चली गई क्योंकि सुबह जल्दी निकालना था।
दिन 02
लेकिन मैं जल्दी नहीं उठ पायी । उठते उठते पौने पाँच बज गया। और साढ़े पाँच और छह बजे के बीच होटल को छोड़ कर हम सोनप्रयाग के लिए निकल गये। फाटा से अनेक कम्पनियों जैसे पवनहंस, पिनाकल एयर और ट्रांस भारत की हेली सेवाएँ आपको मिल जाती है और आवश्यकता के अनुसार इन सेवाओं का लाभ उठाया जा सकता है। फाटा से सोनप्रयाग को जाते समय मार्ग में सरसी नाम की जगह से भी हिमालयन हेली सर्विसेज़ की हेली सेवाएँ उपलब्ध हो जाती है ।
सोनप्रयाग से आगे आप अपना पर्सनल वाहन (कार, बाइक इत्यादि ) नहीं ले जा सकते। यहाँ बनी हुई पार्किंग में आपको अपना वाहन पार्क करना होगा। यहाँ बहुत सारे क्लॉक रूम भी बने हुए है, जहां आप अपने बैग का एक्स्ट्रा सामान रखवा कर, अपने ट्रैकिंग बैग का बोझा कम करके आगे की यात्रा कर सकते है । यही पर से आपको ट्रैक पर चलने के लिए बांस के बने लट्ठे भी मिल जाएँगे, जो कि पथरीले मार्ग में चलने में आपकी काफ़ी मदद कर सकते हैं । सोनप्रयाग के बाज़ार को पार करने के बाद थोड़ा चलने के बाद आपको मंदाकिनी और वासुकि गंगा का संगम दिखाई देगा। इससे कुछ आगे ही पचास रुपए में टैक्सी गाड़ियाँ आपको गौरीकुंड तक पहुँचा देती है।
2013 के आपदा से पहले गौरीकुंड पर एक तप्त पानी का कुंड हुआ करता था, और एक झील जिसे गौरी झील/ पार्वती सरोवर हुआ करती थी। जो की आपदा की भेंट चढ़ गया। अब इस स्थान का नाम ही गौरीकुंड है, यहाँ पर कोई कुंड आपको देखने को नहीं मिलेगा। सिर्फ़ अब माता पार्वती का मंदिर ही आपदा के बाद शेष रह गया है। कल्पना के माध्यम से इसे आप अपने ज़ेहन में रिक्रिएट कर सकते है। गौरीकुंड का मंदिर माता पार्वती को समर्पित है । हिंदू किवदंतियों के अनुसार - माता पार्वती से शिवा को पाने के लिए तपस्या यहीं पर की थी। यहाँ पर माता पार्वती का एक मंदिर है ।किंवदंती है कि पार्वती, जिन्हें गौरी के नाम से भी जाना जाता है, ने शिव का प्यार पाने के लिए गौरीकुंड में तपस्या की थी। उन्होंने यहां ध्यान किया और स्नान किया, और अंततः शिव ने उसी स्थान पर उनके प्रति अपने प्रेम को स्वीकार किया। गौरीकुंड से जुड़ी एक और कहानी यह है कि गणेश को हाथी का सिर कैसे मिला। कुंड में स्नान करते समय, पार्वती ने अपने शरीर पर साबुन के झाग से गणेश का निर्माण किया। जब शिव आये और गणेश ने उन्हें रोका तो शिव ने गणेश का सिर काट दिया। पार्वती ने जिद की कि गणेश को पुनर्जीवित किया जाए और शिव ने गणेश के शरीर पर एक हाथी का सिर लगा दिया।
गौरीकुंड से शुरू होता है पैदल ट्रेक। वैसे तो साइन बोर्ड के अनुसार इस ट्रेक की दूरी 16 किलोमीटर है लेकिन ट्रैकिंग ऐप के अनुसार इसकी दूरी 22 किलोमीटर है। मैं बहुत रोमांचित थी इस ट्रेक को करने के लिए। इस ट्रेक को पूरा करने में सारा दिन निकल गया, धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए। शाम के लगभग 5:30 बजे केदारनाथ पहुँच ही गई।
रामबाड़ा तक का ट्रेक तिरछा तिरछा सा ही है लेकिन रामबाड़ा से आगे को चढ़ाई चढ़नी पढ़ती है।
समुद्र तल से 2740 मीटर यानी करीब 8990 फीट ऊपर मौजूद रामबाड़ा कस्बा केदारनाथ आपदा में पूरी तरह से गायब हो गया, यहां पर 250 से ज्यादा दुकानें, इमारते और घर थे। रामबाड़ा केदारनाथ यात्रा के ठीक बीच का पड़ाव है।
पूरे रास्ते भर पीने का पानी आसानी से मिल जाता है और खाने इत्यादि के लिए फल, मैगी, चाय, कॉफ़ी भी आसानी से खरीदी जा सकती है।
अंतिम चार किलोमीटर का सफ़र तय करने में मुझे लगभग तीन घंटे लगे, क्योंकि थकान लग रही थी और चलने की रफ़्तार धीमी हो गई थी ।
कुल मिलाकर शाम के पाँच बजे मैं केदारनाथ मंदिर पर पहुँच गई रहने के लिए हमने गढ़वाल मंडल विकास निगम की डॉरमेट्री मैं एक बेड बुक कर लिया जो कि 1250 में हमें मिला । क्योंकि हम जल्दी पहुँच गए थे इसलिए हमने केदारनाथ पर होने वाली शाम की आरती के दर्शन करने का निर्णय लिया और हम शाम की आरती देखने के लिए पहुँच गए । शाम की आरती देखने के लिए काफ़ी श्रद्धालु पहले से ही आए हुए थे और भीड़ काफ़ी ज़्यादा थी हमने अपना स्थान ले लिया और शाम की आरती का आनंद लिया । शाम की आरती देख कर मन को काफ़ी अच्छा महसूस हुआ ।
दिन 03
दर्शन करने के लिए काफ़ी भीड़ होने की वजह से हम सुबह चार बजे उठ गए और नहा धोकर लगभग 5 बजे हम मंदिर परिसर में पहुँच गए, लेकिन देखा कि उस समय भी एक लंबी भीड़ लंबी लाइन श्रद्धालुओं की दर्शन के लिए लगी हुई थी । हमने काफ़ी देर लाइन पर इंतज़ार किया लगभग साढ़े आठ बजे जब हमारा नंबर आने ही वाला था हमें पता चला कि कोई वीआईपी दर्शन के लिए आए हुए हैं उस वजह से हमें डेढ़ घंटे का इंतज़ार और करना पड़ा ।खड़े खड़े इंतज़ार करते हुए हम सभी थक गए थे और अपनी लाइन मैं वही कॉरिडोर पर हम नीचे बैठ गए और एक घंटे हम कॉरिडोर पर फ़र्श पर ठण्ड में बैठी रही और लगभग 10 बजे हमें दर्शन करने को मिले ।
मंदिर के अंदर ग्रह गर्भगृह में काफ़ी भीड़ थी काफ़ी श्रद्धालु शिवलिंग के दर्शन स्पर्श करके कर रहे थे जिस कारण अंदर धक्का मुक्की का सा माहौल था इसके साथ ही बगल के एग्जिट वाले गेट से भी वीआईपी दर्शन करवाए जा रहे थे जिस कारण से धक्का मुक्की और बढ़ जा रही थी।जल्दी जल्दी हमने दर्शन किए और हम एग्जिट गेट की ओर बढ़ जाएगी क्योंकि ज़्यादा देर वहाँ खड़े रहने पर गर्भगृह में खड़े रहने से भीड़ और बढ़ सकती थी।
केदारनाथ, जिसका नाम हिंदू राजा केदार के नाम पर रखा गया था, एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थान है। समुद्र तल से 3,584 मीटर ऊपर, केदारनाथ मंदिर लुभावने बर्फ से ढके पहाड़ों और घने जंगलों से घिरा हुआ है। यह उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग क्षेत्र में स्थित है और सबसे प्रसिद्ध पंच केदार मंदिरों में से एक है। मंदिर में शंक्वाकार आकृति वाला एक शिवलिंग रखा हुआ है, जिसे शिव का कूबड़ कहा जाता है। वर्तमान मंदिर की स्थापना का श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है, जिसका निर्माण आठवीं या नौवीं शताब्दी में भूरे पत्थर के स्लैब से किया गया था।
कहा जाता है जब पांडवों को स्वर्गप्रयाण के समय शिवजी ने भैंसे के स्वरूप में दर्शन दिए थे जो बाद में धरती में समा गए लेकिन पूर्णतः समाने से पूर्व भीम ने उनकी पुंछ पकड़ लीं थी। जिस स्थान पर भीम ने इस कार्य को किया था उसे वर्तमान में केदारनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। एवं जिस स्थान पर उनका मुख धरती से बाहर आया उसे पशुपतिनाथ (नेपाल) कहा जाता है। केदारनाथ मंदिर को अर्द्धज्योतिर्लिंग कहते हैं। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर को मिलाकर यह पूर्ण होता है। पुराणों में पंचकेदार की कथा नाम से इस कथा का विस्तार से उल्लेख मिलता है।
भले ही केदारनाथ यात्रा में एक कठिन ट्रेक शामिल है, लेकिन यह सुंदर दृश्यों से होकर गुजरती है, जो हर समय यात्रियों के उत्साह को बढ़ा देती है। और इस तरह हर साल हजारों लोग केदारनाथ यात्रा पर जाते हैं।
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