कही भीतर कुछ है
जो भरने की
कोशिश में लगा है
पर इसके बावजूद भी
खाली सा रह जाता है।
दिन की रोशनी में
लगता है पूरा हो रहा है
लेकिन रात फिर इसे
अधूरा कर जाती है
क्या ये तुम्हारे आने
से भरेगा?
या तब भी
खाली ही रहेगा?
- शालिनी पाण्डेय
कही भीतर कुछ है
जो भरने की
कोशिश में लगा है
पर इसके बावजूद भी
खाली सा रह जाता है।
दिन की रोशनी में
लगता है पूरा हो रहा है
लेकिन रात फिर इसे
अधूरा कर जाती है
क्या ये तुम्हारे आने
से भरेगा?
या तब भी
खाली ही रहेगा?
- शालिनी पाण्डेय
मैं तुझे जोड़ देती हूं
हर उस कविता से
हर उस कहानी से
हर उस गीत से
जिनमें आस है
मिलन की
मैं तुझे जोड़ देती हूं
हर उस शेर से
हर उस ग़ज़ल से
हर उस दृश्य से
जिसमें टीस है
बिछड़न की
मैं तुझे जोड़ देती हूं
हर उस अल्फ़ाज़ से
हर उस ख़्याल से
हर उस खामोशी से
जिसमें कसमकस है
तुझे समझने की।
-शालिनी पाण्डेय
राह चलते
वो मुझसे टकराई
थोड़ा पास आयी
और मुस्काई
मेरी रूह
बेनूर हो गई
नजदीकियां जब
यूँ टकराई
-शालिनी पाण्डेय
मैं कौन हूं?
ये प्रश्न बार बार
मेरे सामने आता है
कई बार खुद ब खुद
कई बार लाया जाता है
मैं कविता हूं
नहीं, मैं कहानी हूं
जिसका अंत होता है
मैं क्या हूं?
क्या मैं सचमुच
कुछ हूं?
क्या मैं जरूरी हूं
नहीं-नहीं
मैं तो यूँ ही हूं
जैसा होना होता है।
-शालिनी पाण्डेय
वक़्त के इंतजार में
दो राही
ताक रहे थे राह
सोच रहे थे
कब आएगी
राहें वो आसान
ठहरे रहे
आस लिए
पर ढल गयी
जीवन की सांझ
अब यूं ही
सबके लिए
थोड़े आती
राहें वो आसान।
-शालिनी पाण्डेय
मैं तुम्हें बुनना चाहती थी
लेकिन तुम उधड़ते गए
मैं सम्हलना चाहती थी
लेकिन गिरती रही
मैं सुंदरता चाहती थी
लेकिन जर्जर होती गई
मैं तुम्हें सांसें देना चाहती थी
लेकिन जल कर खाक होती रही
अजीब चाह थी
मैं तुम बनना चाहती थी
पर ना तुम ही बन सकी
और ना मैं ही रह गई।
-शालिनी पाण्डेय
मैं चाहती थी
तुम्हारी बाहें थामे
लंबी सड़क पे चलना ।
तेरे काँधे पर सिर टिकाये
समुद्र को देखना ।
मैं चाहती थी
तुम्हारे साथ तन्हाई के
कुछ लम्हें बांटना ।
सीमाओं को लांघकर
तुम्हारे करीब आना।
मैं चाहती थी
तुम्हारे लिए कुछ बुनना
जिसे तुम दुख में ओढ़ पाते।
कुछ ऐसा लिखना
जिसे तुम संजो के रख पाते ।
मैं चाहती थी
तुम्हारे साथ दिल खोल के हँसना
और दिल खोल के रोना ।
चाहती थी तुम्हारे बालों के रंग को
बदलते हुए देखना ।
मैं चाहती थी
तुम्हारे माथे पर आने वाली
हर शिकन की तस्वीर बनाना ।
घर के हर एक कोने को
तुम्हारे चित्रों से सजाना ।
शायद
मैं और भी बहुत कुछ चाहती थी
लेकिन तुम्हारी उस चुप्पी ने
इन चाहतों को मुझसे दूर कर दिया।
-शालिनी पाण्डेय
मैं बिगाड़ देना चाहती हूं
तुम्हारे चित्र को
लेक़िन इस क़यास में
वो बनता ही जाता है ।
मैं बिखेर देना चाहती हूं
तुम्हारे होने के अहसास को
पर हर बिखराव के साथ
वो गहराता जाता है।
बार-बार मैं टूटती हूँ
टूट टूटकर गिरती हूं
और जितना मैं टूटती हूँ
तुम उतने ही विशाल होते जाते हो।
-शालिनी पाण्डेय
तुम हमेशा भागते रहे
मुझसे और इस करीबी से
लेकिन मैं कहाँ जाती
मेरे पास तो ये भी नहीं बचा।
अब तुम ही बताओ
क्या कोई खुद से भाग पाया?
-शालिनी पाण्डेय
जब तुम थक जाओगे
लुक्का छिप्पी खेलते हुए
या फिर पा लोगे उसे
खोजते खोजते
शायद तब तुम अहसास हो
मैंने तुम्हें पहले ही
खोज लिया था
बस तुम ही नहीं समझे।
-शालिनी पाण्डेय
राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...