Monday 11 December 2017

तुम अब सिर्फ तुम नही रहे

तुम ख़्वाब हो,
और हकीकत भी ।
तुम ही खुशी हो,
और गम भी ।

मुस्कुराहट भी तुमसे है,
और आँसू भी ।
प्यार भी तुमसे है,
और शिकायतें भी।

बातें भी तुम्हारी है ,
और खामोशी भी।
यथार्थ भी तुम्हारा है,
और सपनें भी ।

तुम अब सिर्फ तुम नही रहे,
"मैं" बन गये हो।
जिससे मैं बिन फेरों,
बिन वादों ही जुड़ चली हूँ।

-- शालिनी पाण्डेय

Wednesday 6 December 2017

रिश्ते का द्वंद

तुम रहते हो पास मेरे
खुशी और गम में साथ मेरे,

कभी पलकों में छुप जाते हो,
कभी आंखों में उतर आते हो,

एक पल को साँसों में समाते हो,
मीठी सी मुस्कान बन आते हो,

कभी अन्तर्मन को छू जाते हो,
कभी नीर बन नैनों से बह जाते हो।

एकांत में भी तुम नजर आते हो,
भीड़ में कही बिछड़ से जाते हो,

तन्हाइयों में दबे पांव चले आते हो,
कुछ बेचैनियाँ सी छोड़ जाते हो।

किसी पल छेड़ते हो धड़कनों का साज,
अगले पल में फिर ले आते हो विषाद,

तुम हो स्मृति और विस्मृति दोनों ही में
बड़े अजब से ये द्वंद है इस रिश्ते में

- शालिनी पाण्डेय

Friday 24 November 2017

यूं ही रहने दे

तेरी खुशबू की छांव में,
कुछ देर खोये रहने दे।
पन्नों को पलटते हुए,
अहसास को साज देने दे।

निकलते मधुर संगीत को,
अंतर्मन तक छू लेने दे।
इन रंगों से उभरते चित्र से,
तेरा एक रूप बुन लेने दे।

हकीकतों से परे ही सही
तुझे जी भर देख तो लेने दे।

घड़ी की टिक टिक में
धड़कनों को मिल लेने दे।
सरसराती हवाओं में
तुझे ओढ़ लेने दे।

कलम से निकली नज़्म को
तेरे नाम कर लेने दे।
और अडोल से इस समय में
तुझे मेरे पास ही रहने दे।

-शालिनी पाण्डेय

Tuesday 25 July 2017

नन्ही खुशियां

कितना प्यारा एहसास है खुशी
खुशी खुद को बेहतर बनाने की
खुशी हरदिन कुछ सीखने की
खुशी आगे बढ़ने की
खुशी प्रयास रत रहने की
खुशी हार ना मानने की
खुशी बरसात में भीग जाने की

गहराई से देखो तो कितनी सारी खुशियां है हमारे आस पास। पर जिंदगी की ये अंधी दौड़ मानो कभी इन सब खुशियों पर पर्दा सा डाल देती है। जिसमें हमें अपनी मंजिल ना मालूम होते हुए भी आंखे मूंद भागे जा रहे है। कहा पहुचेंगे हम नही जानते। बस भागे जा रहे है कि कोई हमसे आगे ना निकल जाए। शायद मैं भी ऐसा ही कुछ कर रही थी। पर अचानक मेरा सिर किसी विशालकाय वस्तु से टकराया और मैं मूर्छित हो गई। जब होश आया तो पता चला कि अब तो बहुत से लोग मुझसे आगे निकल गए है, मैं तो बहुत पीछे रह गई। फिर क्या मैं बहुत रोई, चीखी और चिल्लाई।

पर कोई था ही नही जो मेरी सिसकियों को सुनता और मुझे अपने कंधे पर सिर रखकर रोने देता। ऐसा भी कोई नही था जो मुझे ढ़ाढस बढ़ाता । मैं क्या कर सकती थी। मैंने गुजरने वाले हर एक इंसान को आवाज लगाई और सबकी तरफ लालचाई निगाहों से देखा क्या पता कोई तो रहम दिल होगा। पर बाद में पता चला रहम दिल तो कोरी कल्पना थी मेरी। यहां तो लोग दिल वाले भी ना निकले। फिर क्या था, रही सदमे में कुछ महीनों तक। गुजारी बहुत रातें खुद से बाते करते हुए, खुद को समझते हुए। पूछे मैंने खुद से कई सवाल जिनका मेरे पास कोई जवाब नही था। वही कुछ ऐसे भी सवाल थे जिनके जवाब मुझे मिले। कुछ ऐसे पहलू जिनसे मैं अब तक अछूती थी वो भी समझ आये।

समझ आया कि मेरी जिंदगी की नींव तो मैं खुद ही हूं । कोई और भले ही इसपर इमारत बना सकता है पर उस इमारत की मजबूती तो मुझ से बनी नींव पर ही निर्भर करेगी ना। फिर समझ आया कि जीवन की अच्छी दसा और दिशा के लिए सबसे जरूरी है नींव जो मुझसे बनी है। बाकी सारे लोग तो इस नींव पर बनी इमारत को देखने वालों की तरह है जो कुछ देर रहते है, थोड़ी तारीफ़ करते है, थोड़ी बुराई और फिर अपना उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर अगली इमारत की ओर चले जाते है।

अब मुझे समझ आ रहा था कि जीवन में स्वार्थी बनकर जीना बहुत जरूरी है। स्वार्थी से मेरा तात्पर्य है अपनी इच्छाओं, अपने उद्देश्य, अपनी सोच, अपने आदर्शों, अपने लक्ष्यों के हिसाब से जीवन जीने से है। हमारे जीवन में ये ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। जो कार्य अच्छा लगता है वो करो। जो तुम्हारी रुचियां है उन्हें निखारो। जो तुम्हारे कमजोरियां है उन्हें सुधारों। बस अपने को निखारने में इतने खो जाओ कि ध्यान ही नही रहे कि पास वाली इमारत पर ध्यान ही न जाये। फिर जो भी हम करते है उसमें हमें बहुत सारी खुशियां मिलती जाती है। जो हमारे जीवन को आसान और रोचक बनाने में सहायी है।

-शालिनी पाण्डेय

Monday 17 July 2017

ठहरा हुआ सा मन

चली हूँ आज एक सफर पर
जो बना है टेढ़े रास्तों से
कल कल करती नदियों से
झर झर झरते झरनों से
सर सर करती पवन से
हरी हरी हरियाली से
बूंद बूंद बरसते बादलों से

बहुत से पड़ाव आये इस सफर में
हर एक पड़ाव दूसरे से अलग था
पर अपने में सम्पूर्ण लगा 
हर पड़ाव पर मैं कुछ देर ठहरी
इधर उधर देखा, महसूस किया
और जो बच गया उसे यादों में संजो लिया

अलग ही रोमांच था पूरे सफर में
न केवल मंजिल
पर रास्ते भी मन को लुभा रहे थे
ना आगे का डर सताता
ना पीछे की चिंताएं जला रही थी
और मन मानो ठहर सा गया था
केवल गुजरते पलों पर ।।

-शालिनी पाण्डेय

Friday 16 June 2017

कुछ खो रहा है

आज फिर बैचैनी है
भावों का सैलाब उमड़ रहा है
दिल बहुत भारी है
कुछ पी कर मानो भर गया है

पतझड़ के पेड़ की तरह
पक गए पल टूटकर गिर रहे है
मुरझाई वल्लरियों जैसे
कुछ हिस्से बेरंग हो रहे है

वक़्त की नोंक से
गहरे घावों को कुरेदा जा रहा है
सरहद पर खिंची लकीरों जैसे
कुछ भीतर बाँटा जा रहा है

यूं तो जागी हुई हूं
पर है कुछ भीतर जो सो रहा है
बहुत कुछ था मेरा
जो अब खो रहा है।

-शालिनी पाण्डेय

Tuesday 13 June 2017

मैं जादूगर बन गई हूं

तेरी यादें इस क़दर मुझमें समाई
जैसे कि हवा सांसो में
कमरे में फैली है ऐसे तन्हाई
जैसे हो लालिमा आकाश में

बिन बरसात होते इन्द्रधनुस से नज़ारे
आंखे तो बस पलकों में बसे रूप निहारे
हर पल है ख्वाबों सा सुनहरा
ज़न्नत सा लगता पत्थरों का बसेरा

कब दिन अपना दामन फैलता
कब रात अपना तंबू गाड़ती
मानो कुछ पता ही नही लगता
हर पल अब तो हमें सवेरा ही लगता

जिंदगी की टेड़ी सी ये राहे
मुझे झूले सी अनुभूति देती है
काँटों से लगे ज़ख्मों से भी
अब मुझे गुदगुदी ही होती है

चकित हूँ मैं भी ये रंग देखकर
इसीलिए आईना सामने रखती हूं
जीने के लिए सब कुछ है मेरे पास
लगता है मैं जादूगर बन गई हूं।

- शालिनी पाण्डेय



बहती पवन

मदमस्त होकर बहती पवन
ले चल कभी मुझे भी सैर पर
सीखू मैं भी बिन पंख उड़ने की कला
रुका हुआ सा ये शहर अब लगता बेवफा

तू कितनी मौज में रहती
कभी कोई ठिकाना ना बनाती
बस डोलती यहाँ से वहाँ
जैसे मधु प्याला पी झूमता मतवाला

समूची धरती में तू अकेले टहलती
हर गली कूँचे को तू है चूमती
पेड़, पत्तों, फूलों, नदियों, झरनों
सब से है तेरा गहरा नाता
तू तब भी रहती है विद्यमान
जब सूरज शोले बरसाता

तेरी राह का नहीं दिखता मुझे कोई अंत
मानो हो जैसे आकाश के नीले वस्त्र अंनत
इतनी सुगंधों को तू किये रहती आत्मसाद
पर फिर भी रह लेती है निरीह बेस्वाद

कभी तो दरवाजे पर दस्तक देकर
मुझे अपना हमसफर बना
थोड़े कुछ करतब मुझे भी सीखा
ताकि तय कर सकू मैं भी जिंदगी का ये सफर

या फिर ले चल मुझे कही दूर
किसी डोरी से लटकाये
इंसानों के बनाये ये ठिकाने
कमबख्त अब मुझे नही भाते

-शालिनी पाण्डेय

तू है यादों की एक पोटली

तू है यादों की एक पोटली
जिसे सहेजे हुए हूँ मैं
बरगद सी विशाल तेरी बाहें
जिनमें ख्वाबों के झूले झूल रही हूँ मैं

करती हूं यकी वो पल कभी तो आयेगा
जो तुझे मेरे होने का अहसास करायेगा
शायद रोये पत्थर हो चुकी आंखे तेरी
फूटे तन से स्नेह की कोपलें भी

तेरे भीतर दफ़्न स्निग्दता का तूफान
कभी तो मुझे झकझोरना चाहेगा
अभी ऊफनती नदी है तो क्या
अंत में तो मुझमें मिलना चाहेगा

झाँककर मेरे भीतर शायद
देख पाए तू अपने वजूद के ताने
क्योंकि लफ्ज़ तो अब बस शोर करते है
नहीं बया कर सकते ये तेरे माने

-शालिनी पाण्डेय

Monday 12 June 2017

धरती की वेदना

अंगारों सी तप्त थी धरती
जल रही थी ज्वाला समान
कई बरसों से थी वो प्यासी
रूदन करती थी वो चलायमान

उसके शीश का मुकुट, जो था हरा भरा
सुख कर हो गया था जर्जर
संतृप्ति उसकी करोड़ों संताने
बिलबिला रहे थी हो अधीर

शिराओं समान उसके नदी झरने
निपट ही गये थे सूख
उसके आँचल में पलने वाली वल्लरियाँ
हो गई थी कुरूप

धरती रही थी तड़प
मिलन की बेला के इंतज़ार में
पत्थर सी चुभ रही थी आंखें
महबूब के आसुंओ की आस में

बहुत लंबी तड़पन थी ये
जब धरती बन बैठी थी असहाय
क्या जतन करे कैसे मनाये
उसे ना दिखता था कोई उपाय

फिर बरसों इंतजार के बाद
एक दिन उसे महबूब ने किया याद
आया वो सावन सा झूम कर
करने लगा धरती से वो फरियाद

झुक गया वो धरती की वेदना के आगे
ग्लानि से भर लगा पछताने
पहले फ़ूट पड़ा फुहारों सा
और फिर बरस गया धारों सा

अब धरती गई थी उससे लिपट
फ़ूट फ़ूट कर बहा रहे थे दोनों अश्रु
देख दोनों का ये मिलन रमणीय
धरती के साथ मानों तृप्त हो गए मेरे भी चक्षु।

-शालिनी पाण्डेय



Friday 9 June 2017

निभाओ दस्तूर

निभाओ दस्तूर तुम दुनिया का
निभाएंगे हम भी

डूबे रहो यादों के शहर में
भीग लेंगे हम भी

बंधे रहो क़ैद में परम्परों की
रह लेंगे हम भी

धरे रहो मौन रखे रहो चुप्पी
सी लेंगे होठों को हम भी

करते रहो इंतजार वस्ल का
देखेंगे राह हम भी

मत स्वीकारों जुड़ी संवेदनाओं को
झोली ना फैलाएंगे हम भी

दफ़्न कर दो यादों के सहर को
गिला ना करेंगे हम भी

कर दो कत्ल हसीन सिलसिलों का
आह ना करेंगे हम भी

चले जाओ छोड़कर इस दर को
हाथ ना पकड़ेंगे हम भी

बेशक जियो अरमानों का गला घोंट के
रोक लेंगे सांसे हम भी

निभाओ दस्तूर तुम दुनिया का
निभाएंगे हम भी ।।

-शालिनी पाण्डेय

इन यादों में बेशक़ तुम हो

कैसे ना याद करूं उन गलियों को
जिनपर एक रोज तुम मिले
कैसे छोड़ दूं उन ख्वाबों को
जिनमें शुरू हुए वो हसीन सिलसिले

कैसे भुला दूँ वो बातें वो रातें
जो तुम्हारे सिरहाने बैठकर बिताई
कैसे विदा करूँ वो अहसास
जब मैं एक बच्चे सी तुमसे चिपट गई

कैसे मिटा दूँ तेरा वो चेहरा
जो मेरे आईने पर उतर आया है
कैसे जुदा होऊं तेरी रूह से
जो पानी में मिश्री सी घुल गई है

मैं अहसानमंद हूं इन यादों की
जो फ़ासलों में संगीत सी मेरे साथ रही
तुम्हें संगीत की परख तो है पर
मैं तुम्हें इस गीत को सुनने को नही कहती
क्योंकि इन यादों में बेशक़ तुम हो
लेकिन ये यादें सिर्फ मेरी है अकेले की ।

-शालिनी पाण्डेय

Monday 5 June 2017

टुकड़ों से बन रही मैं

बना रही थी मैं खुद को
टुकड़ों को जोड़ कर

कुछ टुकड़े थे छोटे कुछ बड़े
कुछ थे मिट्टी में दूर गड़े
कुछ मिल गये यूं ही राह पर चलते
देर में मिले वो जो थे रंग बदलते
टुकड़े कुछ थे जो टूटे हुए ही मिले
पर कुछ थे जो धूप से खिले

गुज़रते वक़्त के साथ
इकट्ठे करती रही मैं ये टुकड़े
तूफान में फँसी कस्ती की डोर सा
रही कसकर इन्हें पकड़े
चाह थी कि रहूँ इन्हें ताउम्र जकड़े
ताकि अब और ना ये बिखरे
इस तरह लगभग
बहुत से टुकड़े मैंने बटोरे

मगर भर गई मैं पछतावे से
जब गुजरा आईने सामने से
मैंने खुद को अधूरा पाया
और अहसास फिर ये गहराया
ज्यादा टुकड़े पाने की चाह में
जरूरी टुकड़े तो संजोये ही नही
फिर क्या था
जो बनाना था वो तो बन ही नही पाया
लगा व्यर्थ ही यूं कीमती समय गँवाया ।

-शालिनी पाण्डेय

किताबों वाली मेरी दुनिया

मैं खो सी जाती हूँ अपनी सुध बुध
जब हो जाती हूँ तल्लीन इनमें
दुःख दर्द सब छोटे लगते
जब निगाहें टिक जाती हैं इनमें

बातें पुरानी सब धरी रह जाती
यादें वो तकलीफों वाली गुम हो जाती
धधकती साँसें भी भीग सी जाती
स्निग्धता की लपटें शांत हो जाती
दहला देने वाले वो भयानक ख़्याल
मानों मेरा पता भूल से जाते
किसी अदृश्य स्फूर्ति के मानो दर्शन हो जाते

एक अजब का नशा है इनमें
जो भुला देता है शिक़वे गिले
मैं इस क़दर डूब जाती हूँ इनमें
जैसे डूबता है थका हुआ सूरज गहरे नीले समुद्र में

और डूबते डूबते पहुँच जाती हूँ
उन गहराइयों में
जहाँ होता है स्वर्णमयी प्रकाश
कोई चेहरा नहीं पाती वहां निराश
और जहाँ बटोर पाती हूँ मैं
जीने के लिए ढेर सारा पराग।

-शालिनी पाण्डेय

Sunday 4 June 2017

ललचाई निगाहें

आज मुलाकात हुई एक चिड़िया से
वो चिड़िया
जिसके पंख कतर कर रख दिये है
किसी मखमली से रूमाल में लपेटकर
और लटका दिए गए है किसी इमारत से
सभ्यता संस्कृति जैसे लुभावने नाम देकर
इसके साथ ही
कर दिया है विस्थापित पंखों की याद को भी
रिश्तों का उलाहना देकर

और इसकी लुभावट का जादू तो देखो
आज भी वो चिड़िया
गुमराह है इसकी चकाचोंध में
जी रही है एकतरफा जीवन
अब शायद वो भूल चुकी है
पंख फैलाकर हवा के रुख से उलट उड़ना
खो चुकी है क्षमता
जो प्रत्यक्ष नही है उससे परे देखने की
बस बन सजावट देख रही
सबको ललचाई निगाहों से।

-शालिनी पाण्डेय

Saturday 3 June 2017

सुलगते सपनें

सुलगते हुए सपनें
पूछते है मुझसे बार बार
क्या कभी छत होगी सिर पर
कभी खिल पाएंगे कली जैसे
या फिर यूं ही बंजारा बन
दर ब दर डोलते रहेंगे?

सूरज के ढ़लते ही
शाम की दस्तक़ के साथ
इनका रुदन कुछ बढ़ सा जाता
और ये बैचैन हो दौड़ते रहते
मेरे आशियाने में
और हर सुबह छोड़ जाते
कुछ टुकड़े हर रात के

अब एक रोज की बात हो
तो तक्कलुफ़ उठा भी लिया जाय
पर ये है कि
हर रोज चले आते है
बिन बुलाए मेहमानों जैसे
इनकी पूरी बस्ती साथ लिए

कोई तो इन्हें समझाये
कि ये आशियाँ अभी नया है
इसकी ईंटों ने अभी ज्यादा पानी नही पिया
ये अभी कच्ची है
इतना भार नही सह सकती
इसलिए थोड़ा रहम खाये
कही ऐसा ना हो
अधिक दबाव देने सेे ये आशियाँ उजड़ जाये
और ये यतीम हो जाये।

-शालिनी पाण्डेय

Friday 2 June 2017

बची कुची मौज

मिट्टी का बना वो घरोंदा
एक बड़ा सा आँगन
पास खड़ा आम का पेड़
उसकी डाली पर लटकता
माँ की साड़ी वाला झूला
जिस पर झूलते थे हम
सर्दी, लू , बारिश के मौसम

दूर तक फैले वो खेत
जो थे कही हरे कही पीले
फिर सूख कर हो जाते थे भूरे
वो नीला -बैगनी आकाश
सूरज जैसा लाल टीका
फूलों की वो लंबी बेले
यही थे वो रंग जिनसे हम बचपन खेले

कभी ना खत्म होने वाला मैदान
जो खेतों को जोड़कर हम बनाते
जिस पर खेलते पत्थर टिकाने का खेल
पुराने मोजे की बनी गेंद से
खूब दौड़ते
कभी झगड़ते कभी बिगड़ते
फिर पेड़ की छांव में सुस्ताते
हर दिन ही नया जश्न मानते

क्या मगन दुनिया थी वो
जब ना समझ आते थे दायरे
ना अक्ल थी ना कोई चालाकी
सभी में अपनापन खोज लेते
हर जानने वालों को दोस्त कहा करते
और मौज में रहा करते

अब जब अक्ल आ गई
दुनिया चार दीवारों में सिमट गई
नजारें  देखने को आंख तरस गई
हर मौसम में बस नुस्ख निकालते है
और लंबा जोड़ भाग करते है
कुछ अपनाने के लिए
वक़्त निकलना पड़ता है अब
मौज करने के लिए

वो भी एक दौर था
जब मौज में बसता था जीवन
अब बची कुची सी है मौज
और लुहलुहान सा है जीवन

                  -शालिनी पाण्डेय

Thursday 1 June 2017

परिवर्तनशीलता

कभी है मोम सी कोमलता
तो कभी शिला सी कठोरता
एक पल शांत निश्चल बहती धार
फिर भादों सी उफनती नदी
होती हूँ अग्नि सी ज्वलंत
फिर पूस सी संवेदनशून्य

हो जाती हूँ रंगीन इंद्रधनुष
तो कभी नीरस घाम सी
रंग जाती हूँ कभी सुर्ख लाल
फिर हूँ श्वेत कमल सी
बनती हूँ क़भी ग़ालिब की शायरी
फिर कागज के कोरे पन्नों सी

कभी बरस जाती हूँ
बूंद बूंद सी भर भी जाती हूँ
कभी गगन सी विस्तारित होती
फिर छुईमुई सी सकुचाती

नित्य होता है जन्म और मरन
प्रति क्षण कुछ नया उपजता भीतर
हर पल होता कुछ नष्ट
स्थिर नहीं रहता कभी कुछ
चूंकि स्थिरता है मृत्यु में
जीवन तो सदा चलायमान है।

-शालिनी पाण्डेय

Tuesday 30 May 2017

जिंदगी तेरा शुक्रिया

मैं
कुछ किताबें
मेरी क़लम
ग़ज़लें
और ढेर सारा समय
जो अब हैं सिर्फ मेरा
ये मुझे जन्नत से कम नही लगता
वाह! जिंदगी तेरा शुक्रिया।

देख पा रही हूं अब तुझे बारीकी से
इतने करीब से कि पहले कभी ना देखा
जी पा रही हूं हर आते पल को
सुन पा रही हूं अपनी धड़कनों को
महसूस कर पा रही हूं अपने अस्तित्व को
समझ पा रही हूं अपनी भावों को
वाह! री जिंदगी तेरा शुक्रिया।

कभी ना खत्म होने वाली तलाश
अब खत्म हो गई
आपा धापी में खो गई लाश अब
फिर जी उठी
चेहरे पर पड़ी नक़ाब की परतें
अब गिर सी रही
अब मेरे आशियानें में रह गया
सिर्फ सच और
बचपन वाली बेफ्रिकिया
वाह! जिंदगी तेरा शुक्रिया।

- शालिनी पाण्डेय

Monday 29 May 2017

प्यारा दर्द

ये दर्द इतना प्यारा है कि
घंटों डूबे रहने को जी चाहता है
अब तो चाहत है कि
ये सारा मेरे भीतर ही समा जाए
और इस कदर ठहर जाए
जैसे ठहर जाता है आदमी इश्क़ में

-शालिनी पाण्डेय

भावनाओं की चादर

बेफिक्र हो तुम
आज़ाद हो तुम
भावनाओं से परे हो तुम
और मैं एकदम विपरीत
ना बेफिक्र हो पाती हूँ
ना आज़ाद ही जी पाती हूँ
भावनाओं की चादर मैंने इस कदर ओढ़ ली है
कि कुछ और अनुभव ही नही कर पाती
इससे मैं यूं लिपटी हुई हूँ मानो
एक बिछड़ी प्रेमिका लिपटी है अपने प्रेमी से
जो अब नही चाहती कि वो
आंखों से एक पल के लिए भी ओझल हो
इस बिछड़न की कल्पना मात्र ही
मेरी रूह को कंपा देती है
नही नही
मुझसे ये भावनाओं की चादर नही छूटेगी
इसका त्याग करने से पहले
मैं पसंद करूँगी अपनी रूह को त्यागना

-शालिनी पाण्डेय

Saturday 27 May 2017

एक पहेली

कितना मुश्किल है
यथार्थ में जीना
कितना मुश्किल है
सच को स्वीकारना
कितना मुश्किल है
स्वयं को समझना

ये सब है
एक पहेली सा
जैसे ही लगता है
अब सब सुलझेगा
और उलझ जाता है

मैं भी उलझ सी गई
ऐसे ही पहेली के भीतर
ना पार जा पाई
ना वापस आ पाई

समझ नही आता था
किस राह जाना है
जैसे ही कोई राह चुनों
कुछ मील चलो
छा जाता है वही
गहन अंधेरा

अनेकों प्रयत्न किए
बहुत तरीक़े आजमाए
पूरी जान लगा दी
फिर क्या
और उलझती गयी
ऐसे ही उलझते उलझते
समय समाप्त हो चला

जब आखिर सांस ली
तो समझ आया
ये पहेली ही थी जीवन
इससे पार पाने का मतलब
जीवन से पार पा जाना।

-शालिनी पाण्डेय

मुझे उड़ जाने दो

ऐ मेरे पावों में पड़ी बेड़ियों टूटो
अब ये जकड़न बर्दास्त नहीं होती

क्यों मुझे बाँधने की कोशिश करते हो
क्या पाओगे बंदीे मृत मानव से

क्यों मुझे संजोए रखना चाहते हो
मैं कोई निष्क्रिय मोती तो नही

मुझे टूटने दो
बिखरकर भले ही मिट्टी में मिल जाने दो
पर इस तरह शर्तों में जीने को ना कहो

-शालिनी पाण्डेय

Friday 26 May 2017

भावुकता

भावनाओं की राह पर चली
भावनाओं से भरी थी
अब भावनाओं से ऊब चुकी है

कितनी पाक थे वो भाव
जिनसे उसने गले लगाया
उस अजनबी को

भावुकता भी अजीब बचपना है
बिना जोड़ भाग किये
तुम कांच का एक महल बना लेते हो

और उसे देख कर तुम
ख़ुशी से फूले नही समाते
तुम जीते जाते हो उस मरीचिका में

पर क्या होता है
जब एक आंधी आये
कांच की दीवार ढह जाए

असीम वेदना होती है
सारे भावों का एक सैलाब तुम्हारी आँखों में
और तुम दफन दीवार के नीचे

लेकिन टूटी दीवार के साथ
टूट जाता है तुम्हारा भरम भी
अब शायद लौट आओ तुम
यथार्थ के पन्नों में।

-शालिनी पाण्डेय

रिश्ते

रिश्ते
जिन्हें बनाने में बरसों बीत जाते
जब टूटते हैं तो ऐसे
जैसे नवागंतुक पंछी को बाज ले गया

रिश्तों के तार
जिन्हें जोड़ते जोड़ते एक उम्र निकल जाती है
पर टुकड़े होने के लिए पल भी नही चाहिए

गांधरी की आँखों की पट्टी याद है ना
वैसे ही एक पट्टी अंधकार की
मानो तुम्हारे मन पर भी लग जाती है
अच्छाई अब नजर ही नही आती

अब याद रह जाते है
तीर समान दिल को चीर देने वाले शब्द
जो गूँजते रहते है चारों ओर
उनका नाद तुम्हे पागल सा कर देता है

तुम ऐसे मुँह के बल गिरते हो
जैसे कि अब उठने की हिम्मत ही ना हो
इतने टूट जाते हो कि
खुद को ही पहचानना मुश्किल हो जाता है

ऐसा लगता है
क्यों जी रहे हो तुम
क्या पाया रिश्तों की माला पिरोकर
जो पिरोने वाले को दिख ही नही पायी

अब चुनना होगा किसी एक को
रिश्ते और मैं में से
दो रास्ते है मेरे आगे
या तो डूब जाऊँ
या सबक लेकर जी जाऊं

-शालिनी पाण्डेय

Thursday 25 May 2017

सफर

तय कर रही हूं मैं सफर

हवा के साथ बहने का सफर
झोकों के साथ उड़ जाने का सफर
आंधी में गुम हो जाने का सफर

फुहारों में भीगने का सफर
तेज धारों सेे छुपने का सफर
मुसलदार बरसात में आशियाँ बचाने का सफर

रंगों में रंगने का सफर
बागों में खिलने का सफर
रेत पर फिसलने का सफर

धूप में तपने का सफर
छांव में सुस्ताने का सफर
लहरों को छूने का सफर

भीड़ से निकलने का सफर
प्यार को बांटने का सफर
दूरियां पाटने का सफर

खुद को छांटने का सफर
स्वयं को जांचने का सफर
मधु के प्यालों को भांपने का सफर

ये सफर अजीब है
इसमे मिलन है विषाद भी
नमकीन आंसू है मीठी मुस्कान भी
पर अब ये सिर्फ सफर नही
मेरा हबीब है।

-शालिनी पाण्डेय

कौन हो तुम?

कौन हो तुम
क्या लगते हो मेरे
क्या रिश्ता है हमारा
नही जान सकी हूं अब तक

पर जानना चाहती हूं
क्यों तुम दिल के इतने करीब हो
क्यों तुम हमेशा साथ रहते हो
क्यों तुम्हारा साथ छोड़ने को जी नही चाहता

पर तुम हो कि
मौन धारन किये हो
कुछ बताना ही नही चाहते
क्या किसी हादसे का इंतजार कर रहे हो?

-शालिनी पाण्डेय

Wednesday 24 May 2017

हिस्सेदार

धीरे धीरे वो हिस्सेदार बना
पहले बातों का और फिर यादों का
और अब मेरा

यूं तो वो अलग है
मीलों दूर है
पर उसका अहसास साथ है

वो खामोश है
कुछ जताता नहीं है
लेकिन इससे रिश्ता और गहरा जाता है

वो विचित्र है
अस्थिर भी है
पर इन अदाओं पर भी हमें नाज़ है

पहले रहता था वो ख्यालों में कुछ पल
जब बात हो
या फिर मुलाकात हो

लेकिन अब क्या मेरे ख्याल और क्या वो
लगता है अब दोनों एक हो गए हैं
इसीलिए अब एकाकी होने में भी आनंद है

अचानक जब पढ़ते पढ़ते गहरी सांस लो
या कभी अपने में गुम बैठे रहो तो
ना जानें कहा से आ जाता है

मेरा सिर्फ अपना होने वाला समय और
मेरे इशारों पर चलने वाली क़लम
बिना इजाज़त उसकी तरफ मुड़ जाती है

वो हिस्सेदार बना इसीलिए मिट गया मेरा अहम
अब मैं घुल गई हूं  उसके ही रंग में
और जन्म ले रहा है प्यार

-शालिनी पाण्डेय

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