भावनाओं की राह पर चली
भावनाओं से भरी थी
अब भावनाओं से ऊब चुकी है
कितनी पाक थे वो भाव
जिनसे उसने गले लगाया
उस अजनबी को
भावुकता भी अजीब बचपना है
बिना जोड़ भाग किये
तुम कांच का एक महल बना लेते हो
और उसे देख कर तुम
ख़ुशी से फूले नही समाते
तुम जीते जाते हो उस मरीचिका में
पर क्या होता है
जब एक आंधी आये
कांच की दीवार ढह जाए
असीम वेदना होती है
सारे भावों का एक सैलाब तुम्हारी आँखों में
और तुम दफन दीवार के नीचे
लेकिन टूटी दीवार के साथ
टूट जाता है तुम्हारा भरम भी
अब शायद लौट आओ तुम
यथार्थ के पन्नों में।
-शालिनी पाण्डेय
Comments
Post a Comment