Friday 16 June 2017

कुछ खो रहा है

आज फिर बैचैनी है
भावों का सैलाब उमड़ रहा है
दिल बहुत भारी है
कुछ पी कर मानो भर गया है

पतझड़ के पेड़ की तरह
पक गए पल टूटकर गिर रहे है
मुरझाई वल्लरियों जैसे
कुछ हिस्से बेरंग हो रहे है

वक़्त की नोंक से
गहरे घावों को कुरेदा जा रहा है
सरहद पर खिंची लकीरों जैसे
कुछ भीतर बाँटा जा रहा है

यूं तो जागी हुई हूं
पर है कुछ भीतर जो सो रहा है
बहुत कुछ था मेरा
जो अब खो रहा है।

-शालिनी पाण्डेय

Tuesday 13 June 2017

मैं जादूगर बन गई हूं

तेरी यादें इस क़दर मुझमें समाई
जैसे कि हवा सांसो में
कमरे में फैली है ऐसे तन्हाई
जैसे हो लालिमा आकाश में

बिन बरसात होते इन्द्रधनुस से नज़ारे
आंखे तो बस पलकों में बसे रूप निहारे
हर पल है ख्वाबों सा सुनहरा
ज़न्नत सा लगता पत्थरों का बसेरा

कब दिन अपना दामन फैलता
कब रात अपना तंबू गाड़ती
मानो कुछ पता ही नही लगता
हर पल अब तो हमें सवेरा ही लगता

जिंदगी की टेड़ी सी ये राहे
मुझे झूले सी अनुभूति देती है
काँटों से लगे ज़ख्मों से भी
अब मुझे गुदगुदी ही होती है

चकित हूँ मैं भी ये रंग देखकर
इसीलिए आईना सामने रखती हूं
जीने के लिए सब कुछ है मेरे पास
लगता है मैं जादूगर बन गई हूं।

- शालिनी पाण्डेय



बहती पवन

मदमस्त होकर बहती पवन
ले चल कभी मुझे भी सैर पर
सीखू मैं भी बिन पंख उड़ने की कला
रुका हुआ सा ये शहर अब लगता बेवफा

तू कितनी मौज में रहती
कभी कोई ठिकाना ना बनाती
बस डोलती यहाँ से वहाँ
जैसे मधु प्याला पी झूमता मतवाला

समूची धरती में तू अकेले टहलती
हर गली कूँचे को तू है चूमती
पेड़, पत्तों, फूलों, नदियों, झरनों
सब से है तेरा गहरा नाता
तू तब भी रहती है विद्यमान
जब सूरज शोले बरसाता

तेरी राह का नहीं दिखता मुझे कोई अंत
मानो हो जैसे आकाश के नीले वस्त्र अंनत
इतनी सुगंधों को तू किये रहती आत्मसाद
पर फिर भी रह लेती है निरीह बेस्वाद

कभी तो दरवाजे पर दस्तक देकर
मुझे अपना हमसफर बना
थोड़े कुछ करतब मुझे भी सीखा
ताकि तय कर सकू मैं भी जिंदगी का ये सफर

या फिर ले चल मुझे कही दूर
किसी डोरी से लटकाये
इंसानों के बनाये ये ठिकाने
कमबख्त अब मुझे नही भाते

-शालिनी पाण्डेय

तू है यादों की एक पोटली

तू है यादों की एक पोटली
जिसे सहेजे हुए हूँ मैं
बरगद सी विशाल तेरी बाहें
जिनमें ख्वाबों के झूले झूल रही हूँ मैं

करती हूं यकी वो पल कभी तो आयेगा
जो तुझे मेरे होने का अहसास करायेगा
शायद रोये पत्थर हो चुकी आंखे तेरी
फूटे तन से स्नेह की कोपलें भी

तेरे भीतर दफ़्न स्निग्दता का तूफान
कभी तो मुझे झकझोरना चाहेगा
अभी ऊफनती नदी है तो क्या
अंत में तो मुझमें मिलना चाहेगा

झाँककर मेरे भीतर शायद
देख पाए तू अपने वजूद के ताने
क्योंकि लफ्ज़ तो अब बस शोर करते है
नहीं बया कर सकते ये तेरे माने

-शालिनी पाण्डेय

Monday 12 June 2017

धरती की वेदना

अंगारों सी तप्त थी धरती
जल रही थी ज्वाला समान
कई बरसों से थी वो प्यासी
रूदन करती थी वो चलायमान

उसके शीश का मुकुट, जो था हरा भरा
सुख कर हो गया था जर्जर
संतृप्ति उसकी करोड़ों संताने
बिलबिला रहे थी हो अधीर

शिराओं समान उसके नदी झरने
निपट ही गये थे सूख
उसके आँचल में पलने वाली वल्लरियाँ
हो गई थी कुरूप

धरती रही थी तड़प
मिलन की बेला के इंतज़ार में
पत्थर सी चुभ रही थी आंखें
महबूब के आसुंओ की आस में

बहुत लंबी तड़पन थी ये
जब धरती बन बैठी थी असहाय
क्या जतन करे कैसे मनाये
उसे ना दिखता था कोई उपाय

फिर बरसों इंतजार के बाद
एक दिन उसे महबूब ने किया याद
आया वो सावन सा झूम कर
करने लगा धरती से वो फरियाद

झुक गया वो धरती की वेदना के आगे
ग्लानि से भर लगा पछताने
पहले फ़ूट पड़ा फुहारों सा
और फिर बरस गया धारों सा

अब धरती गई थी उससे लिपट
फ़ूट फ़ूट कर बहा रहे थे दोनों अश्रु
देख दोनों का ये मिलन रमणीय
धरती के साथ मानों तृप्त हो गए मेरे भी चक्षु।

-शालिनी पाण्डेय



Friday 9 June 2017

निभाओ दस्तूर

निभाओ दस्तूर तुम दुनिया का
निभाएंगे हम भी

डूबे रहो यादों के शहर में
भीग लेंगे हम भी

बंधे रहो क़ैद में परम्परों की
रह लेंगे हम भी

धरे रहो मौन रखे रहो चुप्पी
सी लेंगे होठों को हम भी

करते रहो इंतजार वस्ल का
देखेंगे राह हम भी

मत स्वीकारों जुड़ी संवेदनाओं को
झोली ना फैलाएंगे हम भी

दफ़्न कर दो यादों के सहर को
गिला ना करेंगे हम भी

कर दो कत्ल हसीन सिलसिलों का
आह ना करेंगे हम भी

चले जाओ छोड़कर इस दर को
हाथ ना पकड़ेंगे हम भी

बेशक जियो अरमानों का गला घोंट के
रोक लेंगे सांसे हम भी

निभाओ दस्तूर तुम दुनिया का
निभाएंगे हम भी ।।

-शालिनी पाण्डेय

इन यादों में बेशक़ तुम हो

कैसे ना याद करूं उन गलियों को
जिनपर एक रोज तुम मिले
कैसे छोड़ दूं उन ख्वाबों को
जिनमें शुरू हुए वो हसीन सिलसिले

कैसे भुला दूँ वो बातें वो रातें
जो तुम्हारे सिरहाने बैठकर बिताई
कैसे विदा करूँ वो अहसास
जब मैं एक बच्चे सी तुमसे चिपट गई

कैसे मिटा दूँ तेरा वो चेहरा
जो मेरे आईने पर उतर आया है
कैसे जुदा होऊं तेरी रूह से
जो पानी में मिश्री सी घुल गई है

मैं अहसानमंद हूं इन यादों की
जो फ़ासलों में संगीत सी मेरे साथ रही
तुम्हें संगीत की परख तो है पर
मैं तुम्हें इस गीत को सुनने को नही कहती
क्योंकि इन यादों में बेशक़ तुम हो
लेकिन ये यादें सिर्फ मेरी है अकेले की ।

-शालिनी पाण्डेय

Monday 5 June 2017

टुकड़ों से बन रही मैं

बना रही थी मैं खुद को
टुकड़ों को जोड़ कर

कुछ टुकड़े थे छोटे कुछ बड़े
कुछ थे मिट्टी में दूर गड़े
कुछ मिल गये यूं ही राह पर चलते
देर में मिले वो जो थे रंग बदलते
टुकड़े कुछ थे जो टूटे हुए ही मिले
पर कुछ थे जो धूप से खिले

गुज़रते वक़्त के साथ
इकट्ठे करती रही मैं ये टुकड़े
तूफान में फँसी कस्ती की डोर सा
रही कसकर इन्हें पकड़े
चाह थी कि रहूँ इन्हें ताउम्र जकड़े
ताकि अब और ना ये बिखरे
इस तरह लगभग
बहुत से टुकड़े मैंने बटोरे

मगर भर गई मैं पछतावे से
जब गुजरा आईने सामने से
मैंने खुद को अधूरा पाया
और अहसास फिर ये गहराया
ज्यादा टुकड़े पाने की चाह में
जरूरी टुकड़े तो संजोये ही नही
फिर क्या था
जो बनाना था वो तो बन ही नही पाया
लगा व्यर्थ ही यूं कीमती समय गँवाया ।

-शालिनी पाण्डेय

किताबों वाली मेरी दुनिया

मैं खो सी जाती हूँ अपनी सुध बुध
जब हो जाती हूँ तल्लीन इनमें
दुःख दर्द सब छोटे लगते
जब निगाहें टिक जाती हैं इनमें

बातें पुरानी सब धरी रह जाती
यादें वो तकलीफों वाली गुम हो जाती
धधकती साँसें भी भीग सी जाती
स्निग्धता की लपटें शांत हो जाती
दहला देने वाले वो भयानक ख़्याल
मानों मेरा पता भूल से जाते
किसी अदृश्य स्फूर्ति के मानो दर्शन हो जाते

एक अजब का नशा है इनमें
जो भुला देता है शिक़वे गिले
मैं इस क़दर डूब जाती हूँ इनमें
जैसे डूबता है थका हुआ सूरज गहरे नीले समुद्र में

और डूबते डूबते पहुँच जाती हूँ
उन गहराइयों में
जहाँ होता है स्वर्णमयी प्रकाश
कोई चेहरा नहीं पाती वहां निराश
और जहाँ बटोर पाती हूँ मैं
जीने के लिए ढेर सारा पराग।

-शालिनी पाण्डेय

Sunday 4 June 2017

ललचाई निगाहें

आज मुलाकात हुई एक चिड़िया से
वो चिड़िया
जिसके पंख कतर कर रख दिये है
किसी मखमली से रूमाल में लपेटकर
और लटका दिए गए है किसी इमारत से
सभ्यता संस्कृति जैसे लुभावने नाम देकर
इसके साथ ही
कर दिया है विस्थापित पंखों की याद को भी
रिश्तों का उलाहना देकर

और इसकी लुभावट का जादू तो देखो
आज भी वो चिड़िया
गुमराह है इसकी चकाचोंध में
जी रही है एकतरफा जीवन
अब शायद वो भूल चुकी है
पंख फैलाकर हवा के रुख से उलट उड़ना
खो चुकी है क्षमता
जो प्रत्यक्ष नही है उससे परे देखने की
बस बन सजावट देख रही
सबको ललचाई निगाहों से।

-शालिनी पाण्डेय

Saturday 3 June 2017

सुलगते सपनें

सुलगते हुए सपनें
पूछते है मुझसे बार बार
क्या कभी छत होगी सिर पर
कभी खिल पाएंगे कली जैसे
या फिर यूं ही बंजारा बन
दर ब दर डोलते रहेंगे?

सूरज के ढ़लते ही
शाम की दस्तक़ के साथ
इनका रुदन कुछ बढ़ सा जाता
और ये बैचैन हो दौड़ते रहते
मेरे आशियाने में
और हर सुबह छोड़ जाते
कुछ टुकड़े हर रात के

अब एक रोज की बात हो
तो तक्कलुफ़ उठा भी लिया जाय
पर ये है कि
हर रोज चले आते है
बिन बुलाए मेहमानों जैसे
इनकी पूरी बस्ती साथ लिए

कोई तो इन्हें समझाये
कि ये आशियाँ अभी नया है
इसकी ईंटों ने अभी ज्यादा पानी नही पिया
ये अभी कच्ची है
इतना भार नही सह सकती
इसलिए थोड़ा रहम खाये
कही ऐसा ना हो
अधिक दबाव देने सेे ये आशियाँ उजड़ जाये
और ये यतीम हो जाये।

-शालिनी पाण्डेय

Friday 2 June 2017

बची कुची मौज

मिट्टी का बना वो घरोंदा
एक बड़ा सा आँगन
पास खड़ा आम का पेड़
उसकी डाली पर लटकता
माँ की साड़ी वाला झूला
जिस पर झूलते थे हम
सर्दी, लू , बारिश के मौसम

दूर तक फैले वो खेत
जो थे कही हरे कही पीले
फिर सूख कर हो जाते थे भूरे
वो नीला -बैगनी आकाश
सूरज जैसा लाल टीका
फूलों की वो लंबी बेले
यही थे वो रंग जिनसे हम बचपन खेले

कभी ना खत्म होने वाला मैदान
जो खेतों को जोड़कर हम बनाते
जिस पर खेलते पत्थर टिकाने का खेल
पुराने मोजे की बनी गेंद से
खूब दौड़ते
कभी झगड़ते कभी बिगड़ते
फिर पेड़ की छांव में सुस्ताते
हर दिन ही नया जश्न मानते

क्या मगन दुनिया थी वो
जब ना समझ आते थे दायरे
ना अक्ल थी ना कोई चालाकी
सभी में अपनापन खोज लेते
हर जानने वालों को दोस्त कहा करते
और मौज में रहा करते

अब जब अक्ल आ गई
दुनिया चार दीवारों में सिमट गई
नजारें  देखने को आंख तरस गई
हर मौसम में बस नुस्ख निकालते है
और लंबा जोड़ भाग करते है
कुछ अपनाने के लिए
वक़्त निकलना पड़ता है अब
मौज करने के लिए

वो भी एक दौर था
जब मौज में बसता था जीवन
अब बची कुची सी है मौज
और लुहलुहान सा है जीवन

                  -शालिनी पाण्डेय

Thursday 1 June 2017

परिवर्तनशीलता

कभी है मोम सी कोमलता
तो कभी शिला सी कठोरता
एक पल शांत निश्चल बहती धार
फिर भादों सी उफनती नदी
होती हूँ अग्नि सी ज्वलंत
फिर पूस सी संवेदनशून्य

हो जाती हूँ रंगीन इंद्रधनुष
तो कभी नीरस घाम सी
रंग जाती हूँ कभी सुर्ख लाल
फिर हूँ श्वेत कमल सी
बनती हूँ क़भी ग़ालिब की शायरी
फिर कागज के कोरे पन्नों सी

कभी बरस जाती हूँ
बूंद बूंद सी भर भी जाती हूँ
कभी गगन सी विस्तारित होती
फिर छुईमुई सी सकुचाती

नित्य होता है जन्म और मरन
प्रति क्षण कुछ नया उपजता भीतर
हर पल होता कुछ नष्ट
स्थिर नहीं रहता कभी कुछ
चूंकि स्थिरता है मृत्यु में
जीवन तो सदा चलायमान है।

-शालिनी पाण्डेय

हिमालय की अछूती खूबसूरती: पंचाचूली बेस कैंप ट्रैक

राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...