आज फिर बैचैनी है
भावों का सैलाब उमड़ रहा है
दिल बहुत भारी है
कुछ पी कर मानो भर गया है
पतझड़ के पेड़ की तरह
पक गए पल टूटकर गिर रहे है
मुरझाई वल्लरियों जैसे
कुछ हिस्से बेरंग हो रहे है
वक़्त की नोंक से
गहरे घावों को कुरेदा जा रहा है
सरहद पर खिंची लकीरों जैसे
कुछ भीतर बाँटा जा रहा है
यूं तो जागी हुई हूं
पर है कुछ भीतर जो सो रहा है
बहुत कुछ था मेरा
जो अब खो रहा है।
-शालिनी पाण्डेय
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