Monday 12 June 2017

धरती की वेदना

अंगारों सी तप्त थी धरती
जल रही थी ज्वाला समान
कई बरसों से थी वो प्यासी
रूदन करती थी वो चलायमान

उसके शीश का मुकुट, जो था हरा भरा
सुख कर हो गया था जर्जर
संतृप्ति उसकी करोड़ों संताने
बिलबिला रहे थी हो अधीर

शिराओं समान उसके नदी झरने
निपट ही गये थे सूख
उसके आँचल में पलने वाली वल्लरियाँ
हो गई थी कुरूप

धरती रही थी तड़प
मिलन की बेला के इंतज़ार में
पत्थर सी चुभ रही थी आंखें
महबूब के आसुंओ की आस में

बहुत लंबी तड़पन थी ये
जब धरती बन बैठी थी असहाय
क्या जतन करे कैसे मनाये
उसे ना दिखता था कोई उपाय

फिर बरसों इंतजार के बाद
एक दिन उसे महबूब ने किया याद
आया वो सावन सा झूम कर
करने लगा धरती से वो फरियाद

झुक गया वो धरती की वेदना के आगे
ग्लानि से भर लगा पछताने
पहले फ़ूट पड़ा फुहारों सा
और फिर बरस गया धारों सा

अब धरती गई थी उससे लिपट
फ़ूट फ़ूट कर बहा रहे थे दोनों अश्रु
देख दोनों का ये मिलन रमणीय
धरती के साथ मानों तृप्त हो गए मेरे भी चक्षु।

-शालिनी पाण्डेय



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