मैं खो सी जाती हूँ अपनी सुध बुध
जब हो जाती हूँ तल्लीन इनमें
दुःख दर्द सब छोटे लगते
जब निगाहें टिक जाती हैं इनमें
बातें पुरानी सब धरी रह जाती
यादें वो तकलीफों वाली गुम हो जाती
धधकती साँसें भी भीग सी जाती
स्निग्धता की लपटें शांत हो जाती
दहला देने वाले वो भयानक ख़्याल
मानों मेरा पता भूल से जाते
किसी अदृश्य स्फूर्ति के मानो दर्शन हो जाते
एक अजब का नशा है इनमें
जो भुला देता है शिक़वे गिले
मैं इस क़दर डूब जाती हूँ इनमें
जैसे डूबता है थका हुआ सूरज गहरे नीले समुद्र में
और डूबते डूबते पहुँच जाती हूँ
उन गहराइयों में
जहाँ होता है स्वर्णमयी प्रकाश
कोई चेहरा नहीं पाती वहां निराश
और जहाँ बटोर पाती हूँ मैं
जीने के लिए ढेर सारा पराग।
-शालिनी पाण्डेय
बढ़िया
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