तेरी यादें इस क़दर मुझमें समाई
जैसे कि हवा सांसो में
कमरे में फैली है ऐसे तन्हाई
जैसे हो लालिमा आकाश में
बिन बरसात होते इन्द्रधनुस से नज़ारे
आंखे तो बस पलकों में बसे रूप निहारे
हर पल है ख्वाबों सा सुनहरा
ज़न्नत सा लगता पत्थरों का बसेरा
कब दिन अपना दामन फैलता
कब रात अपना तंबू गाड़ती
मानो कुछ पता ही नही लगता
हर पल अब तो हमें सवेरा ही लगता
जिंदगी की टेड़ी सी ये राहे
मुझे झूले सी अनुभूति देती है
काँटों से लगे ज़ख्मों से भी
अब मुझे गुदगुदी ही होती है
चकित हूँ मैं भी ये रंग देखकर
इसीलिए आईना सामने रखती हूं
जीने के लिए सब कुछ है मेरे पास
लगता है मैं जादूगर बन गई हूं।
- शालिनी पाण्डेय
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