Tuesday 13 June 2017

मैं जादूगर बन गई हूं

तेरी यादें इस क़दर मुझमें समाई
जैसे कि हवा सांसो में
कमरे में फैली है ऐसे तन्हाई
जैसे हो लालिमा आकाश में

बिन बरसात होते इन्द्रधनुस से नज़ारे
आंखे तो बस पलकों में बसे रूप निहारे
हर पल है ख्वाबों सा सुनहरा
ज़न्नत सा लगता पत्थरों का बसेरा

कब दिन अपना दामन फैलता
कब रात अपना तंबू गाड़ती
मानो कुछ पता ही नही लगता
हर पल अब तो हमें सवेरा ही लगता

जिंदगी की टेड़ी सी ये राहे
मुझे झूले सी अनुभूति देती है
काँटों से लगे ज़ख्मों से भी
अब मुझे गुदगुदी ही होती है

चकित हूँ मैं भी ये रंग देखकर
इसीलिए आईना सामने रखती हूं
जीने के लिए सब कुछ है मेरे पास
लगता है मैं जादूगर बन गई हूं।

- शालिनी पाण्डेय



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