मदमस्त होकर बहती पवन
ले चल कभी मुझे भी सैर पर
सीखू मैं भी बिन पंख उड़ने की कला
रुका हुआ सा ये शहर अब लगता बेवफा
तू कितनी मौज में रहती
कभी कोई ठिकाना ना बनाती
बस डोलती यहाँ से वहाँ
जैसे मधु प्याला पी झूमता मतवाला
समूची धरती में तू अकेले टहलती
हर गली कूँचे को तू है चूमती
पेड़, पत्तों, फूलों, नदियों, झरनों
सब से है तेरा गहरा नाता
तू तब भी रहती है विद्यमान
जब सूरज शोले बरसाता
तेरी राह का नहीं दिखता मुझे कोई अंत
मानो हो जैसे आकाश के नीले वस्त्र अंनत
इतनी सुगंधों को तू किये रहती आत्मसाद
पर फिर भी रह लेती है निरीह बेस्वाद
कभी तो दरवाजे पर दस्तक देकर
मुझे अपना हमसफर बना
थोड़े कुछ करतब मुझे भी सीखा
ताकि तय कर सकू मैं भी जिंदगी का ये सफर
या फिर ले चल मुझे कही दूर
किसी डोरी से लटकाये
इंसानों के बनाये ये ठिकाने
कमबख्त अब मुझे नही भाते
-शालिनी पाण्डेय
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