सुलगते हुए सपनें
पूछते है मुझसे बार बार
क्या कभी छत होगी सिर पर
कभी खिल पाएंगे कली जैसे
या फिर यूं ही बंजारा बन
दर ब दर डोलते रहेंगे?
सूरज के ढ़लते ही
शाम की दस्तक़ के साथ
इनका रुदन कुछ बढ़ सा जाता
और ये बैचैन हो दौड़ते रहते
मेरे आशियाने में
और हर सुबह छोड़ जाते
कुछ टुकड़े हर रात के
अब एक रोज की बात हो
तो तक्कलुफ़ उठा भी लिया जाय
पर ये है कि
हर रोज चले आते है
बिन बुलाए मेहमानों जैसे
इनकी पूरी बस्ती साथ लिए
कोई तो इन्हें समझाये
कि ये आशियाँ अभी नया है
इसकी ईंटों ने अभी ज्यादा पानी नही पिया
ये अभी कच्ची है
इतना भार नही सह सकती
इसलिए थोड़ा रहम खाये
कही ऐसा ना हो
अधिक दबाव देने सेे ये आशियाँ उजड़ जाये
और ये यतीम हो जाये।
-शालिनी पाण्डेय
आशियाने इतने आलीशान भी ना बनाये कि लोग आराम फरमाने के लिये रातें और दिन युही गुजारते रहे ....
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