Tuesday 30 May 2017

जिंदगी तेरा शुक्रिया

मैं
कुछ किताबें
मेरी क़लम
ग़ज़लें
और ढेर सारा समय
जो अब हैं सिर्फ मेरा
ये मुझे जन्नत से कम नही लगता
वाह! जिंदगी तेरा शुक्रिया।

देख पा रही हूं अब तुझे बारीकी से
इतने करीब से कि पहले कभी ना देखा
जी पा रही हूं हर आते पल को
सुन पा रही हूं अपनी धड़कनों को
महसूस कर पा रही हूं अपने अस्तित्व को
समझ पा रही हूं अपनी भावों को
वाह! री जिंदगी तेरा शुक्रिया।

कभी ना खत्म होने वाली तलाश
अब खत्म हो गई
आपा धापी में खो गई लाश अब
फिर जी उठी
चेहरे पर पड़ी नक़ाब की परतें
अब गिर सी रही
अब मेरे आशियानें में रह गया
सिर्फ सच और
बचपन वाली बेफ्रिकिया
वाह! जिंदगी तेरा शुक्रिया।

- शालिनी पाण्डेय

Monday 29 May 2017

प्यारा दर्द

ये दर्द इतना प्यारा है कि
घंटों डूबे रहने को जी चाहता है
अब तो चाहत है कि
ये सारा मेरे भीतर ही समा जाए
और इस कदर ठहर जाए
जैसे ठहर जाता है आदमी इश्क़ में

-शालिनी पाण्डेय

भावनाओं की चादर

बेफिक्र हो तुम
आज़ाद हो तुम
भावनाओं से परे हो तुम
और मैं एकदम विपरीत
ना बेफिक्र हो पाती हूँ
ना आज़ाद ही जी पाती हूँ
भावनाओं की चादर मैंने इस कदर ओढ़ ली है
कि कुछ और अनुभव ही नही कर पाती
इससे मैं यूं लिपटी हुई हूँ मानो
एक बिछड़ी प्रेमिका लिपटी है अपने प्रेमी से
जो अब नही चाहती कि वो
आंखों से एक पल के लिए भी ओझल हो
इस बिछड़न की कल्पना मात्र ही
मेरी रूह को कंपा देती है
नही नही
मुझसे ये भावनाओं की चादर नही छूटेगी
इसका त्याग करने से पहले
मैं पसंद करूँगी अपनी रूह को त्यागना

-शालिनी पाण्डेय

Saturday 27 May 2017

एक पहेली

कितना मुश्किल है
यथार्थ में जीना
कितना मुश्किल है
सच को स्वीकारना
कितना मुश्किल है
स्वयं को समझना

ये सब है
एक पहेली सा
जैसे ही लगता है
अब सब सुलझेगा
और उलझ जाता है

मैं भी उलझ सी गई
ऐसे ही पहेली के भीतर
ना पार जा पाई
ना वापस आ पाई

समझ नही आता था
किस राह जाना है
जैसे ही कोई राह चुनों
कुछ मील चलो
छा जाता है वही
गहन अंधेरा

अनेकों प्रयत्न किए
बहुत तरीक़े आजमाए
पूरी जान लगा दी
फिर क्या
और उलझती गयी
ऐसे ही उलझते उलझते
समय समाप्त हो चला

जब आखिर सांस ली
तो समझ आया
ये पहेली ही थी जीवन
इससे पार पाने का मतलब
जीवन से पार पा जाना।

-शालिनी पाण्डेय

मुझे उड़ जाने दो

ऐ मेरे पावों में पड़ी बेड़ियों टूटो
अब ये जकड़न बर्दास्त नहीं होती

क्यों मुझे बाँधने की कोशिश करते हो
क्या पाओगे बंदीे मृत मानव से

क्यों मुझे संजोए रखना चाहते हो
मैं कोई निष्क्रिय मोती तो नही

मुझे टूटने दो
बिखरकर भले ही मिट्टी में मिल जाने दो
पर इस तरह शर्तों में जीने को ना कहो

-शालिनी पाण्डेय

Friday 26 May 2017

भावुकता

भावनाओं की राह पर चली
भावनाओं से भरी थी
अब भावनाओं से ऊब चुकी है

कितनी पाक थे वो भाव
जिनसे उसने गले लगाया
उस अजनबी को

भावुकता भी अजीब बचपना है
बिना जोड़ भाग किये
तुम कांच का एक महल बना लेते हो

और उसे देख कर तुम
ख़ुशी से फूले नही समाते
तुम जीते जाते हो उस मरीचिका में

पर क्या होता है
जब एक आंधी आये
कांच की दीवार ढह जाए

असीम वेदना होती है
सारे भावों का एक सैलाब तुम्हारी आँखों में
और तुम दफन दीवार के नीचे

लेकिन टूटी दीवार के साथ
टूट जाता है तुम्हारा भरम भी
अब शायद लौट आओ तुम
यथार्थ के पन्नों में।

-शालिनी पाण्डेय

रिश्ते

रिश्ते
जिन्हें बनाने में बरसों बीत जाते
जब टूटते हैं तो ऐसे
जैसे नवागंतुक पंछी को बाज ले गया

रिश्तों के तार
जिन्हें जोड़ते जोड़ते एक उम्र निकल जाती है
पर टुकड़े होने के लिए पल भी नही चाहिए

गांधरी की आँखों की पट्टी याद है ना
वैसे ही एक पट्टी अंधकार की
मानो तुम्हारे मन पर भी लग जाती है
अच्छाई अब नजर ही नही आती

अब याद रह जाते है
तीर समान दिल को चीर देने वाले शब्द
जो गूँजते रहते है चारों ओर
उनका नाद तुम्हे पागल सा कर देता है

तुम ऐसे मुँह के बल गिरते हो
जैसे कि अब उठने की हिम्मत ही ना हो
इतने टूट जाते हो कि
खुद को ही पहचानना मुश्किल हो जाता है

ऐसा लगता है
क्यों जी रहे हो तुम
क्या पाया रिश्तों की माला पिरोकर
जो पिरोने वाले को दिख ही नही पायी

अब चुनना होगा किसी एक को
रिश्ते और मैं में से
दो रास्ते है मेरे आगे
या तो डूब जाऊँ
या सबक लेकर जी जाऊं

-शालिनी पाण्डेय

Thursday 25 May 2017

सफर

तय कर रही हूं मैं सफर

हवा के साथ बहने का सफर
झोकों के साथ उड़ जाने का सफर
आंधी में गुम हो जाने का सफर

फुहारों में भीगने का सफर
तेज धारों सेे छुपने का सफर
मुसलदार बरसात में आशियाँ बचाने का सफर

रंगों में रंगने का सफर
बागों में खिलने का सफर
रेत पर फिसलने का सफर

धूप में तपने का सफर
छांव में सुस्ताने का सफर
लहरों को छूने का सफर

भीड़ से निकलने का सफर
प्यार को बांटने का सफर
दूरियां पाटने का सफर

खुद को छांटने का सफर
स्वयं को जांचने का सफर
मधु के प्यालों को भांपने का सफर

ये सफर अजीब है
इसमे मिलन है विषाद भी
नमकीन आंसू है मीठी मुस्कान भी
पर अब ये सिर्फ सफर नही
मेरा हबीब है।

-शालिनी पाण्डेय

कौन हो तुम?

कौन हो तुम
क्या लगते हो मेरे
क्या रिश्ता है हमारा
नही जान सकी हूं अब तक

पर जानना चाहती हूं
क्यों तुम दिल के इतने करीब हो
क्यों तुम हमेशा साथ रहते हो
क्यों तुम्हारा साथ छोड़ने को जी नही चाहता

पर तुम हो कि
मौन धारन किये हो
कुछ बताना ही नही चाहते
क्या किसी हादसे का इंतजार कर रहे हो?

-शालिनी पाण्डेय

Wednesday 24 May 2017

हिस्सेदार

धीरे धीरे वो हिस्सेदार बना
पहले बातों का और फिर यादों का
और अब मेरा

यूं तो वो अलग है
मीलों दूर है
पर उसका अहसास साथ है

वो खामोश है
कुछ जताता नहीं है
लेकिन इससे रिश्ता और गहरा जाता है

वो विचित्र है
अस्थिर भी है
पर इन अदाओं पर भी हमें नाज़ है

पहले रहता था वो ख्यालों में कुछ पल
जब बात हो
या फिर मुलाकात हो

लेकिन अब क्या मेरे ख्याल और क्या वो
लगता है अब दोनों एक हो गए हैं
इसीलिए अब एकाकी होने में भी आनंद है

अचानक जब पढ़ते पढ़ते गहरी सांस लो
या कभी अपने में गुम बैठे रहो तो
ना जानें कहा से आ जाता है

मेरा सिर्फ अपना होने वाला समय और
मेरे इशारों पर चलने वाली क़लम
बिना इजाज़त उसकी तरफ मुड़ जाती है

वो हिस्सेदार बना इसीलिए मिट गया मेरा अहम
अब मैं घुल गई हूं  उसके ही रंग में
और जन्म ले रहा है प्यार

-शालिनी पाण्डेय

Tuesday 23 May 2017

कैनवास वाले सपने की याद

आज भी तेरा जिक्र हुआ तो
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई
पलक झपकते ही ख्याल आया कि
तुझे एक कैनवास पर उतार दूँ
और घर की हर दीवार पर सजा दूँ

एकटक जी भर कर देखती रहूँ
इस क़दर निहारती रहूँ कि
खो जाऊं तुझमें कही
भूल जाऊं कि मैं क्या हूं
समा जाऊं तुझमे इस कदर
कि ये फासले शून्य हो जाएं
सीने से चिपट जाऊं ऐसे
कि धड़कनों से मिल पाऊं
इतने करीब आ जाऊं
कि महसूस हो साँसों की गर्मी
लग जाऊं इस तरह गले
कि फिर कभी ना बिछड़ पाऊं

आंखे खुलते ही ख्याल टूटा
मैं स्तब्ध ताक रही थी लेकिन
घर की दीवार बिल्कुल सूनी थी
ये देख मैं थोड़ा घबरायी
पर फिर कैनवास वाले ख्वाब की याद
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान ले आयी।

-शालिनी पाण्डेय

Saturday 6 May 2017

संगिनी

वो लड़की,
समझदार और आत्मनिर्भर
क्यों भटक रही है?
दर-दर पर जाकर,
किसे आवाज दे रही है?
समझ नही पा रही,
उसकी तलाश को।
जी चाह रहा कि पूछ लूं-
आखिर चाहती क्या हो?

क्यूँ मुझे यूं अशांत कर रही हो?
मुझे है अभी लंबा सफर तय करना,
पाना है पार बहुत से पड़ावों को,
अगर तुम साथ ना दोगी,
तो कौन देगा?

तुम ही हो जो जानती हो मुझे जन्म से,
पहचानती हो मेरे सपनों को,
तुम ही अगर इस संघर्ष में
मेरे साथ ना रहोगी
तो कौन रहेगा?

ए लड़की
और ना इस मन को भटका
तू और मैं हैं जीवन भर की संगिनी
मुझे तू यूं भृमित करेगी तो,
कैसे खिल पाऊंगी मैं फूल बनकर?
कैसे चकमकुंगी सितारा बनकर?

हो सकता है,
तुम अलग राह जाना चाहोगी।
किंतु संगिनी ठहर जाओ,
इस राह पर मुझे अभी तुम्हारी जरूरत है।

-शालिनी पाण्डेय

Wednesday 3 May 2017

सूरज दादा बोलो

सूरज की पहली किरण, स्पर्श करती धरा का
सुप्त अवस्था निर्जीव से सजीव हो उठती
पंखुड़ियों में गुम जल की बूंद मोती जैसे चमचमाती
अंधियारी राहें प्रकाशित हो जाती
नव आगंतुक पक्षी भी चहचहाते
वृक्ष लताएं गाती मंगलगान
सारा विश्व हो जाता चलायमान

किंतु चलायमान इस विश्व में
एक मानव अब भी निर्जीव सा है
आंखे खुली है लेकिन सुप्त है
चमकना चाहता है लेकिन
जीवनरूपी चौराहे पर खो सा गया
अंधियारी राहों में भटक सा गया
मन की स्थिरता हो गयी कंपित
जीवन उद्देश्य हो गया धूमिल
केवल पसरा है अनजान सा भय
भय खुद को खो देने का

हर उगते सूरज के साथ
वो मानव सोच रहा कि
आज निश्चय ही तुम
जीवन पर पसरे इस भय को हारोगे
उसको भयमुक्त करोगे
इसी उम्मीद से
आज भी जागा है वो मानव
कि तुम उसे अग्रसर करोगे
निर्जीवता से सजीवता
भय से विश्वास
निरीहता से सौन्दर्यता
अस्थिरता से स्थिरता
जड़ता से सृजनात्मकता की ओर

तो बोलो सूरज दादा
तुम करोगे ना उसे भयमुक्त?

-शालिनी पाण्डेय




हिमालय की अछूती खूबसूरती: पंचाचूली बेस कैंप ट्रैक

राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...