क्यों ना
नीरस उदासी वाले पन्नों को
उखाड़ फेंकने के बजाय
एक छन्नी की तरह
जीवन में लगाया जाये
ताकि कुछ एक लोग
थोड़ा और करीब आ पाये,
और कुछ थोड़ा दूर चले जाये।
~ शालिनी पाण्डेय
क्यों ना
नीरस उदासी वाले पन्नों को
उखाड़ फेंकने के बजाय
एक छन्नी की तरह
जीवन में लगाया जाये
ताकि कुछ एक लोग
थोड़ा और करीब आ पाये,
और कुछ थोड़ा दूर चले जाये।
~ शालिनी पाण्डेय
बहुत डरावना है
महसूस कर पाना
साँसों की अधीरता
बहुत डरावना है
महसूस कर पाना
जीवन की भंगुरता
बहुत डरावना है
महसूस कर पाना
जीने की विवशता।
~ शालिनी पाण्डेय
अभी कुछ दिन पहले की बात है
जब समेटा था यार के विश्वास को
तो खो दिया था स्वार्थ को
जब समेट रही थी प्रार्थना की ऊर्जा को
तो खो रही थी काले डर की छाया को
जब बोने जा रही थी प्यार के बीजों को
तो उखाड़ रही थी अहं की जड़ों को
ऐसे ही रोज थोड़ा समेटती हूँ खुद को
और बिखेर देती हूं थोड़े को।
~ शालिनी पाण्डेय
धूल को देखा है कभी
कैसे वो चुपचाप आकर
बैठ जाती है अलमारी
में रखी किताबों के ऊपर
जो कई दिनों से नहीं पढ़ी गई
और हमें जरा भी
भनक नहीं लगती
धूल के किताब में आ जाने की
कई दिनों बाद जब
पढ़ने के लिए हम
उस किताब को टटोलते है
तो नजरों के लिए
मुश्किल सा होता है
धूल की परत को हटाए बिना
किताब को पहचान पाना
देखा कितनी चालाकी से
धूल किताब का हिस्सा
बनने की फिराक में थी,
इस धूल की तरह ही
कुछ विचार भी होते है
जो दबे पांव आकर
कुछ रोज के लिए
घेर लेते है हमारे मन को
अनजाने, गहरे अवसाद से।
~ शालिनी पाण्डेय
टूट टूट कर नींद तेरी यादों से
बिस्तर भरती रही रात भर
धड़कन तेरा नाम
गुनगुनाती रही रात भर
लब एक बोसे को
तड़पते रहे रात भर
बदन तेरे आगोश के
लिए सिमटता रहा रात भर
और साँसे बिछड़न का दर्द
सुनाती रही रात भर।
~ शालिनी पाण्डेय
तेज हवा सा तू टकराता है
बारिश की बूंद बन छू जाता है
सोये नन्हें बीजों को जगाकर
अंकुरित हो पेड़ बन आता है ।
~ शालिनी पाण्डेय
राहुल सांकृत्यायन मानते थे कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि-...