अभी कुछ दिन पहले की बात है
जब समेटा था यार के विश्वास को
तो खो दिया था स्वार्थ को
जब समेट रही थी प्रार्थना की ऊर्जा को
तो खो रही थी काले डर की छाया को
जब बोने जा रही थी प्यार के बीजों को
तो उखाड़ रही थी अहं की जड़ों को
ऐसे ही रोज थोड़ा समेटती हूँ खुद को
और बिखेर देती हूं थोड़े को।
~ शालिनी पाण्डेय
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