Thursday 25 July 2019

अनजाने अवसाद से

धूल को देखा है कभी
कैसे वो चुपचाप आकर
बैठ जाती है अलमारी
में रखी किताबों के ऊपर
जो कई दिनों से नहीं पढ़ी गई
और हमें जरा भी
भनक नहीं लगती
धूल के किताब में आ जाने की

कई दिनों बाद जब
पढ़ने के लिए हम
उस किताब को टटोलते है
तो नजरों के लिए
मुश्किल सा होता है
धूल की परत को हटाए बिना
किताब को पहचान पाना

देखा कितनी चालाकी से
धूल किताब का हिस्सा
बनने की फिराक में थी,

इस धूल की तरह ही 
कुछ विचार भी होते है
जो दबे पांव आकर
कुछ रोज के लिए
घेर लेते है हमारे मन को
अनजाने, गहरे अवसाद से।

~ शालिनी पाण्डेय

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