धूल को देखा है कभी
कैसे वो चुपचाप आकर
बैठ जाती है अलमारी
में रखी किताबों के ऊपर
जो कई दिनों से नहीं पढ़ी गई
और हमें जरा भी
भनक नहीं लगती
धूल के किताब में आ जाने की
कई दिनों बाद जब
पढ़ने के लिए हम
उस किताब को टटोलते है
तो नजरों के लिए
मुश्किल सा होता है
धूल की परत को हटाए बिना
किताब को पहचान पाना
देखा कितनी चालाकी से
धूल किताब का हिस्सा
बनने की फिराक में थी,
इस धूल की तरह ही
कुछ विचार भी होते है
जो दबे पांव आकर
कुछ रोज के लिए
घेर लेते है हमारे मन को
अनजाने, गहरे अवसाद से।
~ शालिनी पाण्डेय
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