Wednesday 3 May 2017

सूरज दादा बोलो

सूरज की पहली किरण, स्पर्श करती धरा का
सुप्त अवस्था निर्जीव से सजीव हो उठती
पंखुड़ियों में गुम जल की बूंद मोती जैसे चमचमाती
अंधियारी राहें प्रकाशित हो जाती
नव आगंतुक पक्षी भी चहचहाते
वृक्ष लताएं गाती मंगलगान
सारा विश्व हो जाता चलायमान

किंतु चलायमान इस विश्व में
एक मानव अब भी निर्जीव सा है
आंखे खुली है लेकिन सुप्त है
चमकना चाहता है लेकिन
जीवनरूपी चौराहे पर खो सा गया
अंधियारी राहों में भटक सा गया
मन की स्थिरता हो गयी कंपित
जीवन उद्देश्य हो गया धूमिल
केवल पसरा है अनजान सा भय
भय खुद को खो देने का

हर उगते सूरज के साथ
वो मानव सोच रहा कि
आज निश्चय ही तुम
जीवन पर पसरे इस भय को हारोगे
उसको भयमुक्त करोगे
इसी उम्मीद से
आज भी जागा है वो मानव
कि तुम उसे अग्रसर करोगे
निर्जीवता से सजीवता
भय से विश्वास
निरीहता से सौन्दर्यता
अस्थिरता से स्थिरता
जड़ता से सृजनात्मकता की ओर

तो बोलो सूरज दादा
तुम करोगे ना उसे भयमुक्त?

-शालिनी पाण्डेय




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