बना रही थी मैं खुद को
टुकड़ों को जोड़ कर
कुछ टुकड़े थे छोटे कुछ बड़े
कुछ थे मिट्टी में दूर गड़े
कुछ मिल गये यूं ही राह पर चलते
देर में मिले वो जो थे रंग बदलते
टुकड़े कुछ थे जो टूटे हुए ही मिले
पर कुछ थे जो धूप से खिले
गुज़रते वक़्त के साथ
इकट्ठे करती रही मैं ये टुकड़े
तूफान में फँसी कस्ती की डोर सा
रही कसकर इन्हें पकड़े
चाह थी कि रहूँ इन्हें ताउम्र जकड़े
ताकि अब और ना ये बिखरे
इस तरह लगभग
बहुत से टुकड़े मैंने बटोरे
मगर भर गई मैं पछतावे से
जब गुजरा आईने सामने से
मैंने खुद को अधूरा पाया
और अहसास फिर ये गहराया
ज्यादा टुकड़े पाने की चाह में
जरूरी टुकड़े तो संजोये ही नही
फिर क्या था
जो बनाना था वो तो बन ही नही पाया
लगा व्यर्थ ही यूं कीमती समय गँवाया ।
-शालिनी पाण्डेय
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