मिट्टी का बना वो घरोंदा
एक बड़ा सा आँगन
पास खड़ा आम का पेड़
उसकी डाली पर लटकता
माँ की साड़ी वाला झूला
जिस पर झूलते थे हम
सर्दी, लू , बारिश के मौसम
दूर तक फैले वो खेत
जो थे कही हरे कही पीले
फिर सूख कर हो जाते थे भूरे
वो नीला -बैगनी आकाश
सूरज जैसा लाल टीका
फूलों की वो लंबी बेले
यही थे वो रंग जिनसे हम बचपन खेले
कभी ना खत्म होने वाला मैदान
जो खेतों को जोड़कर हम बनाते
जिस पर खेलते पत्थर टिकाने का खेल
पुराने मोजे की बनी गेंद से
खूब दौड़ते
कभी झगड़ते कभी बिगड़ते
फिर पेड़ की छांव में सुस्ताते
हर दिन ही नया जश्न मानते
क्या मगन दुनिया थी वो
जब ना समझ आते थे दायरे
ना अक्ल थी ना कोई चालाकी
सभी में अपनापन खोज लेते
हर जानने वालों को दोस्त कहा करते
और मौज में रहा करते
अब जब अक्ल आ गई
दुनिया चार दीवारों में सिमट गई
नजारें देखने को आंख तरस गई
हर मौसम में बस नुस्ख निकालते है
और लंबा जोड़ भाग करते है
कुछ अपनाने के लिए
वक़्त निकलना पड़ता है अब
मौज करने के लिए
वो भी एक दौर था
जब मौज में बसता था जीवन
अब बची कुची सी है मौज
और लुहलुहान सा है जीवन
-शालिनी पाण्डेय
अपने घर का आँगन याद आ गया .....
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