टूटी शाखों पर जब नई कोपलें निकल आती हैं निर्बाध बहते झरने से जब राही अपनी प्यास बुझाता है जंगल के बीच वृक्ष की छांव में जब थका हुआ चरवाहा सुस्ताता है नदी की छोटी धार पर जब को...
वो बेबाक बातों सी कल्पना वाली दुनिया जब कम थे पैसे ज्यादा थी खुशियां मासूमियत लिए दिल होते थे जब पाक वादों के बिना भी बन जाता था विश्वास नन्ही सी अपनी दुनिया लगती थी तब काफ...
हर रात को राख की तरह पूरी जल कर सो जाती हूँ सुबह उस राख के बीचों बीच एक अंकुर निकलता है आने वाले दिन के लिए जो रात तक फिर से जल कर राख हो जाता है। ~ शालिनी पाण्डेय