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Showing posts from August, 2019

उजड़ा सा पहाड़

टूटी शाखों पर जब नई कोपलें निकल आती हैं निर्बाध बहते झरने से जब राही अपनी प्यास बुझाता है जंगल के बीच वृक्ष की छांव में जब थका हुआ चरवाहा सुस्ताता है नदी की छोटी धार पर जब को...

बचपन के साथी

वो बेबाक बातों सी कल्पना वाली दुनिया जब कम थे पैसे ज्यादा थी खुशियां मासूमियत लिए दिल होते थे जब पाक वादों के बिना भी बन जाता था विश्वास नन्ही सी अपनी दुनिया लगती थी तब काफ...

राख

हर रात को राख की तरह पूरी जल कर सो जाती हूँ सुबह उस राख के बीचों बीच एक अंकुर निकलता है आने वाले दिन के लिए जो रात तक फिर से जल कर राख हो जाता है। ~ शालिनी पाण्डेय