टूटी शाखों पर
जब नई कोपलें निकल आती हैं
निर्बाध बहते झरने से
जब राही अपनी प्यास बुझाता है
जंगल के बीच वृक्ष की छांव में
जब थका हुआ चरवाहा सुस्ताता है
नदी की छोटी धार पर
जब कोई पत्थर का पुल बनाता है
वीरान त्याग दी गई राहों में
जब कोई अपना लौट आता है
विशाल बरगद की लटों से
जब कोई बच्चा झूला बनाता है
पत्थर के चूल्हे पर
जब कोई गीली लकड़ियां सुलगाता है
और बूढ़े देवालय में शाम को
जब कोई प्रकाश की लौ जलाता है
तो उजड़ा हुआ सा एक पहाड़
फिर से बस जाता है।
~ शालिनी पाण्डेय
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