कुछ दिनों पूर्व मैंने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की एक documentry देखी, जिसमें इस दर्दनाक वाकये का जिक्र एक पत्रकार ने कुछ इस प्रकार किया गया था:
तुमको सुनायी देती हैं बनावटी चीखे
खामोशियों का चीखना तो अभी बाँकी हैं,
फर्श पर अगर हक तुम्हारा हैं तो
मेरा अर्श अभी बाकी हैं,
भले ही लकीरे खीच दो तुम ज़मी पर
मगर मेरी ज़न्नत अभी बाक़ी हैं।
खामोशियों का चीखना तो अभी बाँकी हैं,
फर्श पर अगर हक तुम्हारा हैं तो
मेरा अर्श अभी बाकी हैं,
भले ही लकीरे खीच दो तुम ज़मी पर
मगर मेरी ज़न्नत अभी बाक़ी हैं।
एक विस्थापित कश्मीरी ने दंगों के समय अपना हाले बया कुछ यूं व्यक्त किया:
घर के अन्दर भी खतरा था
घर के बाहर भी था जोख़िम
उन्होंने खाया तरस हमारी हालत पर
और एक एक कर फ़ूक डाले हमारे घर
अब ना अन्दर खतरा हैं ना बाहर जोख़िम।
घर के बाहर भी था जोख़िम
उन्होंने खाया तरस हमारी हालत पर
और एक एक कर फ़ूक डाले हमारे घर
अब ना अन्दर खतरा हैं ना बाहर जोख़िम।
कई वर्षों से विस्थापित नोयडा में रह रहे एक सज्जन ने अपने घर वापस जाने की अपनी आशाओं को कुछ इन पक्तियों में पिरोया:
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मरकर जीते हैं,
जिस सुबह की अमृत की धुन में हम जहर के प्याले पीते हैं,
इन भूखी प्यासी रूहों पर एक दिन तो करम फर्मायेगी,
वो सुबह कभी तो आयेगी।
जिस सुबह की अमृत की धुन में हम जहर के प्याले पीते हैं,
इन भूखी प्यासी रूहों पर एक दिन तो करम फर्मायेगी,
वो सुबह कभी तो आयेगी।
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