‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ विनोद कुमार शुक्ल जी का लिखा हुआ एक उपन्यास है। इस उपन्यास को वर्ष 1999 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। शुक्ल जी द्वारा लिखित, मेरे द्वारा पढ़ा गया यह पहला उपन्यास है। यह उपन्यास लंबे समय से मेरी पठन सूची में था, लेकिन इसे पढ़ना उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त होने के बाद ही संभव हो पाया। यह उपन्यास काफी संक्षिप्त है, केवल 250 पन्नों का। यह उपन्यास अपने नाम की तरह ही अनोखा है। इसे पढ़ते हुए लगता है जैसे हम किसी ठहरे हुए, धीमे-धीमे खुलते जीवन के भीतर प्रवेश करते जा रहे हों। उपन्यास की कहानी एक निम्न मध्यम वर्ग के साधारण किरदार रघुवर प्रसाद (गणित के प्राध्यापक) और सोनसी से संबंधित है, जो अपने एक छोटे-से कमरे में रहते हुए, रोज़मर्रा की दिक़्क़तों के बीच अपने सपनों और भावनाओं के लिए जगह तलाशते हैं। उपन्यास में दीवार और खिड़की केवल ईंट-पत्थर की चीज़ें ना हो कर, एक प्रतीक हैं। दीवार प्रतीक है - स्थिरता, बंधन और रोज़मर्रा के जीवन का, जबकि खिड़की प्रतीक प्रत्येक है- संभावना, उम्मीद और खूबसूरती का। दीवार में रह रही यह खिड़की हमारे जीवन का खु...
दिन 01 सुबह के साढ़े तीन बजे है और मेरी नींद खुली। अलार्म चार बजे का लगाया था और नींद अपने आप खुल गई । मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी ।वैसे तो मैं जल्दी उठने वाले लोगों की श्रेणी में नहीं आती किंतु अगर कोई यात्रा करनी हो तो मैं जल्दी से जल्दी उठ सकती हूँ। क्योंकि सुबह पाँच बजे की गाड़ी थी, चार बजे का अलार्म लगाया था, लेकिन नींद उससे पहले ही खुल गई। आज मुझे काफ़ी यात्रा करनी थी। कोश्यारी जी की गाड़ी पाँच बजे मुझे पिक करने आ गई थी, अक्टूबर का महीना था तो इस समय थोड़ा अंधेरा सा ही था। दस बजे मैं बागेश्वर पहुँच गई थी । वहाँ से दूसरी गाड़ी ले कर गरुड़ पहुची। यहाँ से मुझे कर्णप्रयाग वाली गाड़ी लेनी थी। गरुड़ से कर्णप्रयाग की दूरी लगभग 98 किलोमीटर है । गरुड़ से कर्णप्रयाग को नियमित रूप से एक ही गाड़ी चलती है । कर्णप्रयाग वाली गाड़ी मेरे पहुँचने के थोड़ा देर बाद वहाँ आ गई थी । गाड़ी के चालक रघु दा थे , वे उम्र में काफ़ी उम्रदराज़ थे। वे बता रहे थे कि इस रूट में गाड़ी चलाते हुए उन्हें सोलह साल हो गये हैं । वे रास्ते में आने वाले हर एक पड़ाव से भली भाँति परिचित थे। हमने नामक स्थान पर दिन...