जिसे तुम कहते हो
नया साल
मुझे तो उसमें कुछ
ऐसा नहीं दिखता
जिसके लिए मैं
जश्न मनाऊँ
ये सुबह भी
बीती सुबहों जैसी
अकेली ही थी
चाय की चुस्कियां लेते
वक़्त आज भी सिर्फ
यादें ही साथ थी
फर्क था तो इतना
कि मेरे सिर पर
सफेद बालों की तादात बढ़ गयी थी
चेहरे पर दो चार झुर्रियां
और निकल आयी थी
और मैं
कुछ खोजते खोजते
एक पल शून्य में समा
कर फिर लौट आयी
इस नितांत अकेली
थकी दुनिया में
जहाँ नए साल का जश्न
अब भी मनाया जा रहा था।
-- शालिनी पाण्डेय
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