जब शाम कल्पनाओं में
डूबी रहती थी
छुट्टी का दिन
घाट किनारे गुजारा जाता था
एक वक्त था
जब तुम्हें सामने पाकर
खुशियां सम्हाले ना सम्हलती थी
चाय पर बातों का सिलसिला
खत्म नहीं होता था
और अब सिर्फ वक़्त है
ना बातें है, ना तुम हो,
ना घाट का किनारा,
ना ही रंगीन शामें है...
अब बस इन्तज़ारी है
हालातों के सुधर जाने की
और किसी रोज फिर से
तुम्हें गले लगाने की।
- शालिनी पाण्डेय
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