Monday 17 September 2018

यादों की दस्तक़

तेरी यादों की दस्तक़
मेरी दहलीज़ पर
अब तो रोज ही होती है

घण्टों ये अब मुझसे
बातें करने लगी है
घर के कोनों पर
इकट्ठा भी होने लगी है
ज्यादा हो जाने पर
किवाड़ों से झांकने लगी है

इनमें से कुछ यादें तो
पन्नों में छपने लगी है
और कुछ बिस्तर पर
साथ सोने लगी है
और कुछ इंतजार की
साथी बनने लगी है

अब यूं लगने लगा है कि
ये यादों की दस्तक ही तो है
जो तुम्हें मेरे क़रीब रखने लगी है

-शालिनी पाण्डेय

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