पहाड़ से दूर,
और मैं देख पाती हूँ
भाभर से पहाड़
जाने वाले रास्ते
और अपने बीच के
फासलों को जिन्हें
मैं इस जीवन
पाट नहीं पाई
और ना ही
जा सकी लौटकर
परिवार के पास ।
- शालिनी पाण्डेय
रेत के टीले पर,
अपने बिस्तर में
अपने बिस्तर में
सर रखते ही,
मैं पहाड़ को साफ
देख पाती हूँ.. . .
मैं देखती हूँ
अपने पुरखों के
खपड़ैल वाले घर को,
जिसकी छत
इस बरसात गिर गई,
जिसकी छत
इस बरसात गिर गई,
गोठ में बँँधी
भूरी गाय को,
जिसके बछड़े को
बाघ ले गया ,
भूरी गाय को,
जिसके बछड़े को
बाघ ले गया ,
पिनालू के पत्तों पर
जमा ओस में
देखती हूँ बिंब
देखती हूँ बिंब
पिताजी के बचपन का,
जिसमें वो
आँगन के तीर में
नीचे गिरे अखरोट
अपनी जेब में भर रहे है....
जिसमें वो
आँगन के तीर में
नीचे गिरे अखरोट
अपनी जेब में भर रहे है....
नौले से पानी लाने वाले
कच्चे रास्ते के
छोर पर उगे
सिननें की पत्तियों के
बीच की खाली जगह से
देखती हूँ
अपनी आमा को
बीच की खाली जगह से
देखती हूँ
अपनी आमा को
उनकी बूटे वाली
पीली साड़ी में।
और मैं देख पाती हूँ
भाभर से पहाड़
जाने वाले रास्ते
और अपने बीच के
फासलों को जिन्हें
मैं इस जीवन
पाट नहीं पाई
और ना ही
जा सकी लौटकर
परिवार के पास ।
- शालिनी पाण्डेय
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