हेलो, अक्टूबर की सुबह
मैं आज बिछड़ रही हूं
इन दीवारों से
जिन्होंने मुझे सहेजे रखा था
मार्च की अंधेरी रातों में
आज मैं बिछड़ रही हूं
उस एकांत की स्याही से
जिसके रंगों में सरोबार होकर
मैंने क़लम चलाना सीखा
आज मैं बिछड़ रही हूं
उस दरवाजे से
जिससे होकर पहली बार
तुम मेरे करीब आये और
अधरों से अधर मिलाये
आज मैं बिछड़ रही हूं
उस शिवालय से
जिसकी घंटियों ने
निराशा में मुझे
जीवन की सरगम सुनाई
आज मैं बिछड़ रही हूं
उस अनुभूती के इंजन से
जो पिछले तीन वर्षों से
मुझे ले जा रहा था
एकाकीपन की पटरियों पर।
- शालिनी पाण्डेय
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