Friday 15 November 2019

झरना

थके हारे से दिनों में,
जब नहीं समझ आता,
कि 
प्राण क्यों जीवित हैंं ?

तब,
किनारा पाने की आस में,
उदासियां निचोड़ कर
लिखे रात्रिगीत को सुनाने 
मैं तुम्हारी ओर आती हूं,

लेकिन, 
दरवाज़े के ठीक सामने
ठिठक जाती है चाल,
मौन धारण कर लेते है शब्द.....

और 
गीत को 
अपने भीतर समेटकर,
मैं इस डर से 
लौट आती हूं कि....
कहीं मेरी कलम से निकला 
उदास स्याहियों का ये झरना
देहली लांघ कर, 
तुम्हारे भीतर ना बह निकले।

- शालिनी पाण्डेय

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