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Showing posts from June, 2017

कुछ खो रहा है

आज फिर बैचैनी है भावों का सैलाब उमड़ रहा है दिल बहुत भारी है कुछ पी कर मानो भर गया है पतझड़ के पेड़ की तरह पक गए पल टूटकर गिर रहे है मुरझाई वल्लरियों जैसे कुछ हिस्से बेरंग हो रहे ह...

मैं जादूगर बन गई हूं

तेरी यादें इस क़दर मुझमें समाई जैसे कि हवा सांसो में कमरे में फैली है ऐसे तन्हाई जैसे हो लालिमा आकाश में बिन बरसात होते इन्द्रधनुस से नज़ारे आंखे तो बस पलकों में बसे रूप निहा...

बहती पवन

मदमस्त होकर बहती पवन ले चल कभी मुझे भी सैर पर सीखू मैं भी बिन पंख उड़ने की कला रुका हुआ सा ये शहर अब लगता बेवफा तू कितनी मौज में रहती कभी कोई ठिकाना ना बनाती बस डोलती यहाँ से वहा...

तू है यादों की एक पोटली

तू है यादों की एक पोटली जिसे सहेजे हुए हूँ मैं बरगद सी विशाल तेरी बाहें जिनमें ख्वाबों के झूले झूल रही हूँ मैं करती हूं यकी वो पल कभी तो आयेगा जो तुझे मेरे होने का अहसास कराय...

धरती की वेदना

अंगारों सी तप्त थी धरती जल रही थी ज्वाला समान कई बरसों से थी वो प्यासी रूदन करती थी वो चलायमान उसके शीश का मुकुट, जो था हरा भरा सुख कर हो गया था जर्जर संतृप्ति उसकी करोड़ों संत...

निभाओ दस्तूर

निभाओ दस्तूर तुम दुनिया का निभाएंगे हम भी डूबे रहो यादों के शहर में भीग लेंगे हम भी बंधे रहो क़ैद में परम्परों की रह लेंगे हम भी धरे रहो मौन रखे रहो चुप्पी सी लेंगे होठों को ह...

इन यादों में बेशक़ तुम हो

कैसे ना याद करूं उन गलियों को जिनपर एक रोज तुम मिले कैसे छोड़ दूं उन ख्वाबों को जिनमें शुरू हुए वो हसीन सिलसिले कैसे भुला दूँ वो बातें वो रातें जो तुम्हारे सिरहाने बैठकर बित...

टुकड़ों से बन रही मैं

बना रही थी मैं खुद को टुकड़ों को जोड़ कर कुछ टुकड़े थे छोटे कुछ बड़े कुछ थे मिट्टी में दूर गड़े कुछ मिल गये यूं ही राह पर चलते देर में मिले वो जो थे रंग बदलते टुकड़े कुछ थे जो टूटे हुए ...

किताबों वाली मेरी दुनिया

मैं खो सी जाती हूँ अपनी सुध बुध जब हो जाती हूँ तल्लीन इनमें दुःख दर्द सब छोटे लगते जब निगाहें टिक जाती हैं इनमें बातें पुरानी सब धरी रह जाती यादें वो तकलीफों वाली गुम हो जाती...

ललचाई निगाहें

आज मुलाकात हुई एक चिड़िया से वो चिड़िया जिसके पंख कतर कर रख दिये है किसी मखमली से रूमाल में लपेटकर और लटका दिए गए है किसी इमारत से सभ्यता संस्कृति जैसे लुभावने नाम देकर इसके स...

सुलगते सपनें

सुलगते हुए सपनें पूछते है मुझसे बार बार क्या कभी छत होगी सिर पर कभी खिल पाएंगे कली जैसे या फिर यूं ही बंजारा बन दर ब दर डोलते रहेंगे? सूरज के ढ़लते ही शाम की दस्तक़ के साथ इनका रु...

बची कुची मौज

मिट्टी का बना वो घरोंदा एक बड़ा सा आँगन पास खड़ा आम का पेड़ उसकी डाली पर लटकता माँ की साड़ी वाला झूला जिस पर झूलते थे हम सर्दी, लू , बारिश के मौसम दूर तक फैले वो खेत जो थे कही हरे कही प...

परिवर्तनशीलता

कभी है मोम सी कोमलता तो कभी शिला सी कठोरता एक पल शांत निश्चल बहती धार फिर भादों सी उफनती नदी होती हूँ अग्नि सी ज्वलंत फिर पूस सी संवेदनशून्य हो जाती हूँ रंगीन इंद्रधनुष तो ...