मुझे देखो, मैं कितना ज़्यादा बोलती हूं
और तुम हो कि इतना थोड़ा कहते हो
कभी कभी तो इतना कम तुम कह पाते हो
कि यूँ लगता है कि
एक अरसा बीत गया है तुम्हें कुछ कहे हुए
तुम बहुत सोच के कहते हो
इसीलिए ज्यादा वक़्त में इतना कम कहते हो
तुम्हारे कुछ ना कहने से कह पाने के बीच के सफर में
जो इंतज़ार होता है
मेरे लिए बड़ा मुश्किल सा होता है
तब मेरा जी चाहता है
कि तुम कुछ तो कहो
बहुत थोड़ा ही सही
बिना उसकी जांच किये बगैर ही
लेकिन फिर भी तुम नहीं कहते
पता नहीं तुम कहने की कला कब सीखेगो ?
सीखोगें भी या नहीं ?
या फिर मैं ही वक़्त के साथ
तुम्हारे भावों को पढ़ना सीख लूंगी।
- शालिनी पाण्डेय
No comments:
Post a Comment